श्रीकृष्ण द्वारा अश्वत्थामा की चपलता तथा क्रूरता का वर्णन और भीम की रक्षा का आदेश

महाभारत सौप्तिक पर्व में ऐषीक पर्व के अंतर्गत बारहवें अध्याय में श्रीकृष्ण द्वारा अश्वत्थामा की चपलता तथा क्रूरता का वर्णन और भीम की रक्षा करने के आदेश का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]

श्रीकृष्ण द्वारा अश्वत्थामा की चपलता तथा क्रूरता का वर्णन युधिष्ठिर से करना

वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! दुर्धर्ष वीर भीमसेन के चले जाने पर यदुकुलतिलक कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण ने कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर से कहा- पाण्डुनन्दन! ये आपके भाई भीमसेन पुत्रशोक में मग्न होकर युद्ध में द्रोणकुमार के वध की इच्छा से अकेले ही उस पर धावा कर रहे हैं। भरतश्रेष्ठ! भीमसेन आपको समस्त भाइयों से अधिक प्रिय है, किंतु आज ये संकट में पड़ गये हैं। फिर आप उनकी सहायता के लिये जाते क्यों नहीं है। शत्रुओं की नगरी पर विजय पाने वाले द्रोणाचार्य ने अपने पुत्र को जिस ब्रह्मशिरा नामक अस्त्र का उपदेश दिया है, वह समस्त भूमण्डल को भी दुग्ध कर सकता है। सम्पूर्ण धनुर्धरों के सिरमौर महाभाग महात्मा द्रोणाचार्य ने प्रसन्न होकर वह अस्त्र पहले अर्जुन को दिया था। अश्वत्थामा इसे सहन न कर सका। वह उनका एकलौता पुत्र था, अतः उसने भी अपने पिता से उसी अस्त्र के लिये प्रार्थना की। तब आचार्य ने अपने पुत्र को उस अस्त्र का उपदेश कर दिया, किंतु इससे उनका मन अधिक प्रसन्‍न नहीं था।

उन्हें अपने दुरात्मा पुत्र की चपलता ज्ञात थी, अतः सब धर्मों के ज्ञाता आचार्य ने अपने पुत्र को इस प्रकार शिक्षा दी। बेटा! बड़ी से बड़ी आपत्ति में पड़ने पर भी तुम्हें रणभूमि में विशेषतः मनुष्यों पर इस अस्त्र का प्रयोग नहीं करना चाहिये। नरश्रेष्ठ! अपने पुत्र से ऐसा कहकर गुरु द्रोण पुनः उससे बोले- बेटा! मुझे संदेह है कि तुम कभी सत्पुरुषों के मार्ग पर स्थिर नहीं रहोंगे। पिता के इस अप्रिय वचन को सुन और समझकर दुष्टात्मा द्रोणपुत्र सब प्रकार के कल्याण की आशा छोड़ बैठा और बड़े शोक से पृथ्वी पर विचरने लगा। भरतनन्दन! कुरुश्रेष्ठ! तदनन्तर जब तुम वन में रहते थे, उन्हीं दिनों अश्वत्थामा द्वारका में आकर रहने लगा। वहाँ वृष्णिवंशियों ने उसका बड़ा सत्कार किया।

अश्वत्थामा और कृष्ण का संवाद

एक दिन द्वारका में समुद्र के तट पर रहते समय उसने अकेले ही मुझ अकेले के पास आकर हँसते हुए से कहा- दर्शार्हनन्दन! श्रीकृष्ण! भरतवंश के आचार्य मेरे सत्यपराक्रमी पिता ने उस तपस्या करके महर्षि अगस्त्य से जो ब्रह्मास्त्र प्राप्त किया था, वह देवताओं और गन्धर्वों द्वारा सम्मानित अस्त्र इस समय जैसा मेरे पिता के पास है, वैसा ही मेरे पास भी है, अतः यदुश्रेष्ठ! मुझसे वह दिव्य अस्त्र लेकर रणभूमि में शत्रुओं का नाश करने वाला अपना चक्र नामक अस्त्र मुझे दे दीजिये। भरतश्रेष्ठ! वह हाथ जोड़कर बड़े प्रयत्न के द्वारा मुझसे अस्त्रकी याचना कर रहा था, तब मैंने भी प्रसन्नतापूर्वक ही उससे कहा- ब्रह्मन! देवता, दानव, गन्धर्व, मनुष्य, पक्षी और नाग ये सब मिलकर मेरे पराक्रम के सौवे अंश की भी समानता नहीं कर सकते। यह मेरा धनुष है, यह शक्ति है, यह चक्र है और यह गदा है। तुम जो जो अस्त्र मुझसे लेना चाहते हो, वही वह तुम्हें दिये देता हूँ। तुम मुझे जो अस्त्र देना चाहते हो, उसे दिये बिना ही रणभूमि में मेरे जिस आयुध को उठा अथवा चला सको, उसे ही ले लो। तब उस महाभाग ने मेरे साथ स्पर्धा रखते हुए मुझसे मेरा वह लोहमय चक्र मांगा, जिसकी सुन्दर नाभि में वज्र लगा हुआ है तथा जो एक सहस्र फरसे से सुशोमित होता है![1]

मैंने भी कह दिया - ले लो चक्र, मेरे इतना कहते ही उसने सहसा उछलकर बायें हाथ से चक्र को पकड़ लिया। परंतु वह उसे अपनी जगह से हिला भी न सका। तब उसने उसे दाहिने हाथ से उठाने का प्रयत्न प्रारम्भ किया। सारा प्रयत्न और सारी शक्ति लगाकर भी जब उसे पकड़कर उठा अथवा हिला न सका, तब द्रोणकुमार मन ही मन बहुत दुखी हो गया। भारत! यत्न करके थक जाने पर वह उसे लेने की चेष्टा से निवृत्‍त हो गया। जब उस संकल्प से उसका मन हट गया और वह दुःख से अचेत एवं उद्विग्न हो गया, तब मैंने अश्वत्थामा को बुलाकर पूछा- ब्रह्मन! जो मनुष्य समाज में सदा ही परम प्रामाणिक समझे जाते हैं, जिनके पास गाण्डीव धनुष और श्वेत घोड़े है, जिनकी ध्वजा पर श्रेष्ठ वानर विराजमान होता है, जिन्‍होंने द्वन्दयुद्ध में साक्षात देवदेवेश्वर नीलकण्ठ उमावल्लम भगवान शंकर को पराजित करने का साहस करके उन्हें संतुष्ट किया था, इस भूमण्डल में मुझे जिनसे बढ़कर परम प्रिय दूसरा कोई मनुष्य कर्म करने वाले मेरे पास स्त्री, पुत्र आदि कोई भी ऐसी वस्तु नहीं है, जो देने योग्य न हो, अनायास ही महान कर्म करने वाले मेरे उस प्रिय सृदृढ़ कुन्तीकुमार अर्जुन ने भी पहले कभी ऐसी बात नहीं की थी, जो आज तुम मुझसे कह रहे हो। मूढ़ ब्राह्मण! मैंने बारह वर्षो तक अत्यन्त घोर ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करके हिमालय की घाटी में रहकर बड़ी भारी तपस्या के द्वारा जिसे प्राप्त किया था, मेरे समान व्रत का पालन करने वाली रुक्मिणी देवी के गर्भ से जिसका जन्‍म हुआ है, जिसके रूप में साक्षात तेजस्वी सनत्कुमार ने ही मेरे यहाँ अवतार लिया है, वह प्रद्युम्न मेरा प्रिय पुत्र है। परंतु रणभूमि में जिसकी कही तुलना नहीं है, मेरे इस परम दिव्य चक्र को कभी उस प्रद्युम्न ने भी नहीं माँगा था, जिसकी आज तुमने माँग की है। अत्यन्त बलशाली बलराम जी ने भी पहले कभी ऐसी बात नहीं कही है। जिसे तुमने माँगा है, उसे गद और साम्ब ने भी कभी लेने की इच्छा नहीं की। द्वारका में निवास करने वाले जो अन्य वृष्णि तथा अन्धकवंश के महारथी है, उन्‍होंने भी कभी मेरे सामने ऐसा प्रस्ताव नहीं किया था, जैसा कि तुमने इस चक्र को माँगते हुए किया है।[2]

तात! रथियों में श्रेष्ठ! तुम तो भरतकुल के आचार्य के पुत्र हो। सम्पूर्ण यादवों ने तुम्‍हारा बड़ा सम्मान किया है। फिर बताओ तो सही, इस चक्र के द्वारा तुम किसके साथ युद्ध करना चाहते हो? जब मैंने इस तरह पूछा, तब द्रोणकुमार ने मुझे इस प्रकार उत्‍तर दिया- श्रीकृष्ण! मैं आपकी पूजा करके फिर आपके ही साथ युद्ध करूँगा। प्रभो! मैं यह सच कहता हूँ कि मैंने इस देव दानवपूजित चक्र को आप से इसीलिये माँगा था कि इसे पाकर अजेय हो जाऊँ। किंतु केशव! अब मैं अपनी इस दुर्लभ कामना को आपसे प्राप्त किये बिना ही लौट जाऊँगा। गोविन्द! आप मुझसे केवल इतना कह दे कि तेरा कल्याण हो। यह चक्र अत्यन्‍त भयंकर है और आप भी भयानक वीरों के शिरोमणि है। आपके किसी विरोधी के पास ऐसा चक्र नहीं है। आपने ही इसे धारण कर रखा है। इस भूतल पर दूसरा कोई पुरुष इसे नहीं उठा सकता। मुझसे इतना ही कहकर द्रोणकुमार अश्वत्थामा रथ में जोतने योग्य घोडे़, धन तथा नाना प्रकार के रत्न लेकर वहाँ से यथासमय लौट गया। वह क्रोधी, दुष्टात्मा, चपल और क्रुर है। साथ ही उसे ब्रह्मास्त्र का भी ज्ञान है, अतः उससे भीमसेन की रक्षा करनी चाहिये।[2]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत सौप्तिक पर्व अध्याय 12 श्लोक 1-20
  2. 2.0 2.1 महाभारत सौप्तिक पर्व अध्याय 12 श्लोक 21-41

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