कृपाचार्य द्वारा सत्पुरुषों से सलाह लेने की प्रेरणा देना

महाभारत सौप्तिक पर्व के अंतर्गत दूसरे अध्याय में संजय ने कृपाचार्य द्वारा अश्वत्थामा को दैव की प्रबलता बताते हुए कर्तव्य के विषय में सत्पुरुषों से सलाह लेने की प्रेरणा देने का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]-

कृपाचार्य द्वारा अश्वत्थामा को सत्पुरुषों से सलाह लेने की प्रेरणा देना

तब कृपाचार्य ने कहा- शक्तिशाली महाबाहो! तुमने जो-जो बात कही है वह सब मैंने सुन ली। अब कुछ मेरी भी बात सुनो। सभी मनुष्य प्रारब्धक और पुरुषार्थ दो प्रकार के कर्मों से अथवा अकेले पुरुषार्थ से भी कार्यों की सिद्धि नहीं होती है। दोनों के संयोग से ही सिद्धि प्राप्त होती है। उन दोनों से ही उत्तम-अधम सभी कार्य बँधे हुए हैं। उन्हीं से प्रवृति और निवृति-संबंधी कार्य होते देखे जाते हैं। बादल पर्वत पर वर्षा करके किस फल की सिद्धि करता है वही यदि जोते हुए खेत में वर्षा करे तो वह कौन-सा फल नहीं उत्पन्न कर सकता। दैवरहित पुरुषार्थ व्यर्थ है और पुरुषार्थशून्य दैव भी व्यर्थ हो जाता है। सर्वत्र ये दो ही पक्ष उठाये जाते हैं। इन दोनों में पहला पक्ष ही सिद्धान्त एवं श्रेष्ठ है; अर्थात दैव के सहयोग के बिना पुरुषार्थ नहीं काम देता है। जैसे मेघ ने अच्छी तरह वर्षा की हो और खेत को भी भली-भाँति जोता गया हो तब उसमें बोया हुआ बीज अधिक लाभदायक हो सकता है। इसी प्रकार मनुष्यों की सारी सिद्धि दैव और पुरुषार्थ के सहयोग पर ही अवलम्बित है। इन दोनों में दैव बलवान है। वह स्वयं ही निश्चय करके पुरुषार्थ की अपेक्षा किये बिना ही फल-साधना में प्रवृत हो जाता है तथापि विद्वान पुरुष कुशलता का आश्रय ले पुरुषार्थ में ही प्रवृत होते हैं। नरश्रेष्ठ! मनुष्यों के प्रवृति और निवृति- संबंधी सारे कार्य देव और पुरुषार्थ दोनों से ही सिद्धि होते देखे जाते हैं। किया हुआ पुरुषार्थ भी दैव के सहयोग से ही सफल होता है तथा दैव की अनुकूलता से ही कर्ता को उसके कर्म का फल प्राप्त होता है। चतुर मनुष्यों द्वारा अच्छी तरह सम्पादित किया हुआ पुरुषार्थ भी यदि दैव के सहयोग से वंचित है तो वह संसार में निष्फल दिखायी देता है।

मनुष्यों में जो आलसी और मन पर काबू न रखने वाले होते हैं वे पुरुषार्थ की निन्दा करते हैं। परंतु विद्वानों को यह बात अच्छी नहीं लगती। प्राय: किया हुआ क्रम इस भूतल पर कभी होता नहीं देखा जाता है परंतु कर्म न करने से दुख की प्राप्ति ही देखने में आती है। अत: कर्म को महान फलदायक समझना चाहिए। यदि कोई पुरुषार्थ न करके दैवेच्छा से ही कुछ पा जाता है अथवा जो पुरुषार्थ करके भी कुछ नहीं पाता इन दोनों प्रकार के मनुष्यों का मिलना बहुत कठिन है। पुरुषार्थ में लगा हुआ दक्ष पुरुष सुख से जीवन-निर्वाह कर सकता है परंतु आलसी मनुष्य कभी सुखी नहीं होता है। इस जीव-जगत में प्राय: तत्परतापूर्वक कर्म करने वाले ही अपना हित साधन करते देखे जाते हैं। यदि कार्य-दक्ष मनुष्य कर्म का आरम्भ करके भी उसका कोई फल नहीं पाता है तो उसके लिये उसकी कोई निन्दा नहीं की जाती अथवा वह अपने प्राप्ताव्यभ लक्ष्य को पा ही लेता है। परंतु जो इस जगत में कोई काम न करके बैठा-बैठा फल भोगता है, वह प्राय निन्दित होता है और दूसरों के द्वेष का पात्र बन जाता है।[1] इस प्रकार जो पुरुष इस मत का अनादर करके इसके विपरीत बर्ताव करता है अर्थात जो दैव और पुरुषार्थ दोनों के सहयोग को न मानकर केवल एक के भरोसे ही बैठा रहता है वह अपना ही अनर्थ करता है यही बुद्धिमानों की नीति है। पुरुषार्थहीन दैव अथवा दैवहीन पुरुषार्थ- इन दो ही कारणों से मनुष्य का उद्योग निष्फल होता है। पुरुषार्थ के बिना तो यहाँ कोई कार्य सिद्ध नहीं हो सकता। जो दैव को मस्तक झुकाकर सभी कार्यों के लिये भली-भाँति चेष्ठा करता है वह दक्ष एवं उदार पुरुष असफलताओं का शिकार नहीं होता। यह भली-भाँति चेष्ठा उसी की मानी जाती है जो बड़े-बूढ़ों की सेवा करता है उनसे अपने कल्याण की बात पूछता है और उनके बताये हुए हितकारक वचनों का पालन करता है। प्रतिदिन सवेरे उठ-उठकर वृद्धजनों द्वारा सम्मानित पुरुषों से अपने हित की बात पूछनी चाहिये। क्योंकि वे अप्राप्त की प्राप्ति कराने वाले उपाय के मुख्य हेतु हैं। उनका बताया हुआ वह उपाय ही सिद्धि का मूल कारण कहा जाता है।

जो वृद्ध पुरुषों का वचन सुनकर उसके अनुसार कार्य आरम्भ करता है वह उस कार्य का उत्तम फल शीघ्र ही प्राप्त कर लेता है। अपने मन को वश में न रखते हुए दूसरों की अवहेलना करने वाला जो मानव राग क्रोध भय और लोभ से किसी कार्य की सिद्धि के लिये चेष्ठा करता है वह बहुत जल्दी अपने ऐश्वर्य से भ्रष्‍ट हो जाता है। दुर्योधन लोभी और अदूरदर्शी था। उसने मूर्खतावश न तो किसी का समर्थन प्राप्त किया और न स्वयं ही अधिक सोच-विचार किया। उसने अपना हित चाहने वाले लोगों का अनादर करके दुष्टों के साथ सलाह की और सबके मना करने पर भी अधिक गुणवान पाण्‍डवों के साथ वैर बांध लिया। पहले भी वह बड़े दुष्ट स्वभाव का था। धैर्य रखना तो वह जानता ही नहीं था। उसने मित्रों की बात नहीं मानी इसलिये अब काम बिगड़ जाने पर पश्चाताप करता है। हम लोग जो उस पापी का अनुसरण करते हैं। इसीलिये हमें भी यह अत्यन्त दारुण अनर्थ प्राप्त हुआ है। इस संकट से सर्वथा संतप्त होने के कारण मेरी बुद्धि आज बहुत सोचने-विचारने पर भी अपने लिये किसी हितकर कार्य का निर्णय नहीं कर पाती है। जब मनुष्य मोह के वशीभूत हो हिताहित का निर्णय करने में असमर्थ हो जाय तब उसे अपने सुहृदों से सलाह लेनी चाहिये। वहीं उसे बुद्धि और विनय की प्राप्ति हो सकती है और वहीं उसे अपने हित का साधन भी दिखायी देता है। पूछने पर वे विद्वान हितैषी अपनी बुद्धि से उसके कार्यों के मूल कारण का निश्चय करके जैसी सलाह दें वैसा ही उसे करना चाहिये। अत: हम लोग राजा धृतराष्‍ट्र गान्धारी देवी तथा परम बुद्धिमान विदुर जी के पास चलकर पूछें। हमारे पूछने पर वे लोग अब हमारे लिये जो श्रेयस्कर कार्य बतावें वहीं हमें करना चाहिये मेरी बुद्धि का तो यही दृढ़ निश्चय है। कार्य को आरम्भ न करने से कहीं कोई भी प्रयोजन सिद्ध नहीं होता है, परंतु पुरुषार्थ करने पर भी जिनका कार्य सिद्ध नहीं होता है वे निश्चय ही दैव के मारे हुए हैं। इसमें कोई अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये।[2]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत सौप्तिक पर्व अध्याय 2 श्लोक 1-17
  2. महाभारत सौप्तिक पर्व अध्याय 2 श्लोक 18-35

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