रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 185

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

दूसरा अध्याय

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किंते कृतं क्षिति तपो बत केशवाङ्‌घ्नि-
स्पर्शोत्सवोत्पुलकितागंरुहैर्विभासि।
अप्यङ्‌घ्निसम्भव उरुक्रमविक्रमाद्‌ वा
आहो वराहवपुष: परिम्भणेन।।10।।

वृक्षों से भी जब कोई उत्तर नहीं मिला, तब उन्मादिनी व्रजसुन्दरियों ने पृथ्वी को सम्बोधन करके कहा - ‘भगवान की प्रियतमे पृथ्वी देवि! तुमने ऐसा कौन-सा तप किया है जो तुम श्रीकृष्ण के चरणारविन्द का स्पर्श प्राप्त करके आनन्द से उत्फुल्ल हो रही हो और तृण-अंकुर आदि के रूप में रोमांचित होकर शोभा पा रही हो? तुम्हारा यह आनन्दोल्लास अभी-अभी श्रीकृष्ण के चरण स्पर्श के कारण है। अथवा बलि को छलते समय वामनावतार में विराट रूप से अपने चरणों के द्वारा उन्होंने तुमको नापा था, उसके कारण है? या उससे भी पूर्व जब तुम्हारा उद्धार करने के लिये उन्होंने तुमसे वाराह रूप से आलिंगन किया था, उसके कारण तुम्हें इतना आनन्द हो रहा है?।।10।।

अप्येणपत्न्युपगत: प्रिययेह गात्रै-
स्तन्वन्‌ दृशां सखि सुनिर्वतिमच्युतो व:।
कान्तांगसंगकुचकुंकुमञ्जिताया:
कुन्दस्त्रज: कुलपतेहि वाति गन्ध:।।11।।

तदनन्तर हिरणियों की दृष्टि को प्रसन्न देखकर गोपांगनाओं ने सोचा, इन्होंने श्रीकृष्ण को देखा होगा और उनसे कहने लगीं - ‘अरी सखी हिरणियों! अपने प्रेममय स्वभाव में नित्य स्थित श्यामसुन्दर अपनी प्राणप्रिया के साथ अपने मनोहर अंगों के सौन्दर्य-माधुर्य से तुम्हारे नेत्रों को निरतिशय आनन्द प्रदान करते हुए तुम्हारे समीप से तो नहीं गये हैं? हमें तो ऐसा लगता है, वे यहाँ अवश्य आये हैं, क्योंकि यहाँ गोकुलनाथ[1] श्रीकृष्ण के हृदय पर झूलती हुई उस कुन्दकुसुमों की माला की मनोरम सुगन्ध आ रही है, जो उनकी परम प्रेयसी के आलिंगन के कारण लगी हुई उसके वक्षःस्थल की केसर से अनुरंजित रहती ।।11।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. या हमारे गोपी समुदाय के स्वामी

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