रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 186

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

दूसरा अध्याय

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बाहुं प्रियांस उपधाय गृहीतपद्‌मो
रामानुजस्तुलसिकालिकुलैर्मदान्धै:।
अन्वीयमान इह वस्तरव: प्रणामं
किं वाभिनन्दति चरन्‌ प्रणयावलोकै:।।12।।

हिरणियों को निस्तब्ध देखकर उन्होंने सोचा, एक बार पुनः वृक्षों से पूछकर देखें; अतः वे बोलीं - ‘पवित्र तरुवरों! तुलसी -मंजरी के मधुपान से मत्त हुए भ्रमर जिनके पीछे-पीछे मँडराते चले जा रहे हैं, जो अपने दाहिने हाथ में नीला कमल धारण किये हुए हैं और बायें हाथ को प्रियतमा के कंधे पर रखे हुए हैं, ऐसे श्री बलराम जी के छोटे भाई हमारे प्रियतम श्यामसुन्दर इधर से विचरते हुए निकले थे क्या? तुम जो प्रणाम करने की तरह झुके हुए हो सो क्या उन्होंने प्रेमपूर्ण दृष्टि से तुम्हारे इस प्रणाम का अभिनन्दन किया था?’ ।।12।।

पृच्छतेमा लता बाहूनप्याश्र्लिष्टा वनस्पते:।
नूनं तत्करजस्पृष्टा बिभ्रत्युत्पुलकान्यहो।।13।।

कुछ गोपियों ने कहा - अरी सखियों! वृक्षों से क्या पूछ रही हो। इन लताओं से भी पूछो, जो अपने पति वृक्षों की भुजाओं-शाखाओं से लिपटी हुई हैं। पर इनके शरीर में जो नये-नये अंकुरों के उद्गम रूप में पुलकावली छायी हुई है, यह अवश्य ही इनके पति-वृक्षों से लिपटी रहने के कारण नहीं है। यह तो भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के नखों के स्पर्श का ही परिणाम है। अहो! इनका कैसा सौभाग्य है?।।13।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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