मेरे तो गिरधर गोपाल -रामसुखदास पृ. 88

मेरे तो गिरधर गोपाल -स्वामी रामसुखदास

13. अलौकिक प्रेम

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सांसारिक दुःख में कर्म अपना फल देकर नष्ट हो जाते हैं और कर्ता की स्वतन्त्र सत्ता रह जाती है; परन्तु विरह के दुःख में कर्मों का कारण (गुणों का संग) ही नष्ट हो जाता है और कर्ता की स्वतन्त्र सत्ता नहीं रहती, प्रत्युत केवल परमात्मा की सत्ता रहती है। सांसारिक दुःख से जन्म-मरणरूप बन्धन नष्ट नहीं होता, पर विरह के दुःख से यह बन्धन सर्वथा नष्ट हो जाता है-‘प्रक्षीणबन्धनाः।’ इसलिये श्रीकृष्ण के विरह के तीव्र ताप से गोपियों का गुणमय शरीर छूट गया। इसके साथ मन-ही-मन श्रीकृष्ण का मिलन होने से से गोपियों को ब्रह्मलोक के सुख से भी विलक्षण सुख का अनुभव हुआ। कारण कि ब्रह्मलोक तक सभी लोक पुनरावर्ती होने से बन्धन कारक हैं- ‘आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोअर्जुन’ [1]। अतः ब्रह्मलोक का सुख भी प्राकृत है, जबकि गोपियों को मिलने वाला ध्यान जनित सुख प्रकृति से अतीत है। तात्पर्य यह हुआ कि भगवान् के विरह के दुःख से और ध्यानजनित मिलन के सुख से गोपियों के पाप-पुण्य ही नष्ट नहीं हुए, प्रत्युत जन्म-मरण का कारण जो गुणों काक संग है, वह भी नष्ट हो गया! सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण- तीनों गुणों का संग मिटने से उनका गुणमय शरीर भी छूट गया और वे भगवान् के पास पहुँचीं- ‘जहुर्गुणमयं देहं सद्यः प्रक्षीणबन्धनाः।’ कारण कि सत्व, रज और तम-तीनों ही गुण जीव को शरीर में बाँधने वाले हैं।[2]इन गुणों का संग ही ऊँच-नीच योनियों में जन्म लेने का कारण है ‘कारणं गुणसंगोअस्य सदसद्योनिजन्मसु’[3]। गुणसंग नष्ट होने के कारण गोपियाँ किसी ऊँची या नीची योनि में नहीं गयीं, प्रत्युत सीधे भगवान् को ही प्राप्त हो गयीं।

तात्पर्य है कि जिनसे कर्मबन्धन होता है, ऐसे शुभ और अशुभ सम्पूर्ण कर्मों के फलों से गोपियाँ मुक्त हो गयीं- ‘शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्य से कर्मबन्धनैः’[4]। जिस बन्धन के रहते हुए नरकों का दुःख भोगा जाता है और जिस बन्धन के रहते हुए स्वर्ग, ब्रह्मलोक आदि का सुख भोगा जाता है, गोपियों का वह बन्धन (गुणों का संग) सर्वथा नष्ट हो गया। कारण कि बन्धन पाप-पुण्य से नहीं होता, प्रत्युत गुणों के संग से होता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (गीता 8/16)
  2. सत्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसम्भवाः। निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम्।। (गीता 14/5)
  3. (गीता 13/21)
  4. (गीता 9/28)

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