मेरे तो गिरधर गोपाल -रामसुखदास पृ. 89

मेरे तो गिरधर गोपाल -स्वामी रामसुखदास

13. अलौकिक प्रेम

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अतः भागवत के उपर्युक्त श्लोकों में आये ‘धुताशुभाः’ पद का अर्थ हुआ कि रजोगुण तथा तमोगुण नष्ट हो गये और ‘क्षीणमंगलाः’ पद का अर्थ हुआ कि सत्वगुण नष्ट हो गया।[1] सत्वगुण प्रकाशक और अनामय है, इसलिये उसको यहाँ ‘मंगल’ नाम से कहा गया है।[2] परन्तु प्रकाशक और अनामय होने पर भी वह सुख और ज्ञान के संग से बाँधने वाला होता है-‘सुखसंगेन बध्नाति ज्ञानसंगेन चानघ’ (गीता 14/6)। ध्यान में आये हुए श्रीकृष्ण मन-ही-मन आलिंगन करने से गोपियों को जो विलक्षण सुख हुआ, उस सुख से सत्वगुण से होने वाले सुख संग और ज्ञान संग का भी सुख मिट गया अर्थात् सात्विक सुख और सात्विक ज्ञान की भी आसक्ति मिट गयी! इस प्रकार जन्म-मरण का कारण जो तीनों गुणों का संग है, वह सर्वथा नहीं रहा, जिसके न रहने से गोपियों का गुणमय शरीर भी नहीं रहा।

तत्त्व ज्ञान शरीर के शरीर के सम्बन्ध (अहंता-ममता)-का नाश तो करता है, पर शरीर का नाश नहीं करता। कारण कि जीवमुक्त होने पर संचित और क्रियमाण कर्म तो क्षीण हो जाते हैं, पर प्रारब्ध क्षीण नहीं होता। इसलिये जीवन्मुक्ति, तत्त्व ज्ञान होने पर भी जब तक प्रारब्ध का वेग रहता है, तब तक शरीर भी रहता है। अगर शरीर तत्काल नष्ट हो जाय तो फिर ज्ञान का उपदेश कौन करेगा? ब्रह्मविद्या की परम्परा कैसे चलेगी? परन्तु गोपियों का विरहजन्य ताप इतना विलक्षण था कि उनका गुणसंग तो रहा ही नहीं, गुणमय शरीर भी नष्ट हो गया! उनके संचित, क्रियमाण और प्रारब्ध-तीनों एक साथ तत्काल (सद्यः) और सर्वथा क्षीण (प्रक्षीण) हो गये-‘सद्यः प्रक्षीणबन्धनाः।’ इससे सिद्ध होता है कि ‘वियोग’ में बन्धन जल्दी छूटता है, पर ‘योग’ में देरी लगती है। वियोग में योग से भी विलक्षण आनन्द होता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. आगे राजा परीक्षित् और श्री शुकदेव जी के प्रश्नोत्तर से भी यही बात सिद्ध होती है कि गोपियाँ तीनों गुणों से छूट गयी थीं। परीक्षित् ने पूछा-

    कृष्णं विदुः परं कान्तं न तु ब्रह्मतया मुने।
    गुणप्रवाहोपरमस्तासां गुणविधां कथम्।।(श्रीमद्0 10/29/12)

    ‘मुने! उन गोपियों की श्रीकृष्ण में ब्रह्मबुद्धि नहीं थी, प्रत्युत वे श्रीकृष्ण को केवल अपना परमपति ही मानती थीं। फिर उन गुणों में आसक्त गोपियों का गुण प्रवाहरूप (गुणमय) शरीर कैसे नष्ट हो गया?’

    श्री शुकदेव जी ने उत्तर दिया-
    नृणां निःश्रेयसार्थाय व्यक्तिर्भगवतो नृप।
    अव्ययस्याप्रमेयस्य निर्गुणस्य गुणात्मनः।।(श्रीमद्0 10/29/14)

    ‘राजन्! भगवान् अव्यय (सर्वथा निर्विकार), अप्रमेय (ज्ञान का विषय नहीं), सत्वादि गुणों से रहित और सौन्दर्य आदि दिव्य गुणों से युक्त हैं। वे केवल मनुष्यों के परम कल्याण के ही सबके सामने प्रकट होते हैं।’

  2. गीता में सत्वगुण को भी अनामय कहा गया है-‘तत्र सत्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम्’ (14/6) और पदम पद को भी अनामय कहा गया है- ‘जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम्’ (2/51)। दोनों में फर्क यह है कि सत्व गुण सापेक्ष अनामय है और परमपद निरपेक्ष अनामय है।

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