मेरे तो गिरधर गोपाल -रामसुखदास पृ. 87

मेरे तो गिरधर गोपाल -स्वामी रामसुखदास

13. अलौकिक प्रेम

Prev.png

भगवान् के विरह से गोपियों को जो ताप (दुःख) हुआ, वह दुःसह और तीव्र था- ‘दुःसहप्रेष्ठ विरहतीव्रताप।’ यह ताप संसार के ताप से अत्यन्त विलक्षण है। सांसारिक ताप में तो दुःख-ही-दुःख होता है, पर विरह के ताप में आनन्द-ही-आनन्द होता है। जैसे मिर्ची खाने से मुख में जलन होती है, आँखों में पानी आता है, फिर भी मनुष्य उसको खाना छोड़ता नहीं; क्योंकि उसको मिर्ची खाने में एक रस मिलता है। ऐसे ही प्रेमी भक्त को विरह के तीव्र ताप में उससे भी अत्यन्त विलक्षण एक रस मिलता है। इसीलिये चैतन्य महाप्रभु-जैसे महापुरुष ने भी विरह को ही सर्वश्रेष्ठ माना है। सांसारिक ताप तो पापों के सम्बन्ध से होता है, पर विरह का ताप भगवत्प्रेम के सम्बन्ध से होता है। इसलिये विरह के ताम में भगवान् साथ मानसिक सम्बन्ध रहने से आनन्द का अनुभव होता है-‘ध्यानप्राप्ताच्युताश्लेषनिर्वृत्या’। जैसे प्यास वास्तव में जल से अलग नहीं है, ऐसे ही विरह भी वास्तव में मिलन से अलग नहीं है। जल का सम्बन्ध रहने से ही प्यास लगती है। प्यास में जल की स्मृति रहती है। अतः प्यास जलरूप ही हुई। इसी तरह विरह भी मिलन रूप ही है। विरह और मिलन-दोनों एक ही प्रेम की दो अवस्थाएँ हैं। संसार के सम्बन्ध में सुख भी दुःख रूप है और दुःख भी दुःख रूप है, पर भगवान् के सम्बन्ध में दुःख (विरह) भी सुख रूप है और सुख (मिलन) भी सुख रूप (आनन्द रूप) है। कारण कि सांसारिक सुख-दुख (अनुकूलता-प्रतिकूलता) तो गुणों के संग से होते हैं, पर भगवान् के सम्बन्ध संग से होने वाला दुःख (विरह) सांसारिक सुख से भी बहुत अधिक आनन्द देने वाला होता है! सांसारिक दुःख में अभाव रूप संसार का सम्बन्ध है, पर विरह के दुःख में भावरूप भगवान् का सम्बन्ध है।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

मेरे तो गिरधर गोपाल -रामसुखदास
क्रम संख्या पाठ का नाम पृष्ठ संख्या

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः