मेरे तो गिरधर गोपाल -रामसुखदास पृ. 86

मेरे तो गिरधर गोपाल -स्वामी रामसुखदास

13. अलौकिक प्रेम

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पाप-पुण्य नष्ट होना कोई बड़ी बात नहीं है। पाप-पुण्य तो हरेक आदमी के नष्ट होते रहते हैं; क्योंकि अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति हरेक प्राणी के सामने आती-जाती रहती है। स्वर्ग में निरन्तर पुण्यों का नाश होता है और नरकों में निरन्तर पापों का नाश होता है। पाप-पुण्य प्रकृतिजन्य गुणों के अन्तर्गत हैं। अतः पाप-पुण्य दोनों एक ही जाति के (बन्धन कारक) हैं, अशुभ हैं, मलिन हैं, उत्पन्न और नष्ट होने वाले हैं। परन्तु भगवान् के सम्बन्ध से होने वाले विरह तथा मिलन अत्यन्त दिव्य हैं, चिन्मय हैं, अलौकिक हैं, नित्य हैं और प्रेम की वृद्धि करने वाले हैं। भगवान् के सम्बन्ध से केवल पाप-पुण्य ही नष्ट नहीं होते, प्रत्युत पाप-पुण्य का कारण अज्ञान (गुणसंग) ही नष्ट हो जाता है। इसलिये पाप-पुण्य का और विरह-मिलन का विभाग ही अलग है।

तत्त्व ज्ञान होने पर ज्ञानी पुरुष परिस्थिति से रहित नहीं होता, प्रत्युत सुख-दुःख से रहित होता है। ज्ञानी के सामने भी प्रारब्ध के अनुसार अनुकूल अथवा प्रतिकूल परिस्थिति आती-जाती रहती है, पर उस पर परिस्थिति का असर नहीं होता अर्थात् वह सुखी-दुःखी नहीं होता; क्योंकि वह गुणातीत है-‘समदुःखसुखः स्वस्थः’[1]। अगर अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति सुख-दुःख देने वाली होती अर्थात् सुख-दुःख पाप-पुण्य का फल होता तो मनुष्य सुख-दुःख से रहित नहीं हो पाता, जबकि ज्ञानी पुरुष सुख-दुःख से रहित हो जाता है-‘द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखखसंज्ञैः’[2]प्रह्लाद जी, मीराबाई, आदि के सामने कितनी ही प्रतिकूल परिस्थितियाँ आयीं, फिर भी वे दुःखी नहीं हुए। इसलिये परिस्थिति से रहित होने में मनुष्य स्वतन्त्र नहीं है, पर उसका भोग न करने में अर्थात् सुखी-दुःखी न होने में मनुष्य सर्वथा स्वतन्त्र है। कारण कि परमात्मा का अंश होने से उसमें निर्विकारता स्वतः सिद्ध है।[3] अतः भागवत के उपर्युक्त श्लोकों में आये ‘धुताशुभाः’ पद का अर्थ पाप नष्ट होना और ‘क्षीणमंगलाः’ पद का अर्थ पुण्य नष्ट होना नहीं लिया जा सकता। तो फिर इन पदों का क्या तात्पर्य है? अब इस पर विचार किया जाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (गीता 14/24)
  2. (गीता 15/5)
  3. ईस्वर अंश जीव अबिनासी। चेतन अमल सहज सुखरासी।।
    (मानस, उत्तर0 117/1)
    अनादित्वानिन्नर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः ।
    शरीरस्थोअपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते।।(गीता 13/31)

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