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मेरे तो गिरधर गोपाल -स्वामी रामसुखदास
13. अलौकिक प्रेम
अगर उपर्युक्त श्लोकों पर विचार करते हुए ऐसा मानें कि भगवान् के विरह की तीव्र जलन से गोपियों के पाप नष्ट हो गये- ‘धुताशुभाः’ तथा ध्यान जनित सुख से पुण्य नष्ट हो गये- ‘क्षीणमगंलाः’ और इस प्रकार पाप-पुण्य से रहित (मुक्त) होकर वे भगवान् से जा मिलीं तो यह बात युक्तिसंगत नहीं दीखती। कारण कि विरह और मिलन पाप-पुण्य से ऊँचा उठने पर ही होते हैं। पाप-पुण्य से होने वाले सुख-दुःख (मिलन-विरह) प्राकृत नहीं हैं, प्रत्युत अलौकिक हैं। भगवान् का विरह और मिलन तो गुणों से सम्बन्ध-विच्छेद होने पर होता है, पर पाप और पुण्य गुणों के सम्बन्ध से होते हैं। गुणों से सम्बन्ध न हो तो पाप-पुण्य हो सकते ही नहीं। भगवान् के प्रेम में होने वाले सुख-दुःख को अर्थात् मिलन-विरह को पाप-पुण्य का फल कहना वास्तव में उसकी निन्दा है। भगवान् के सम्बन्ध से योग होता है, भोग नहीं होता। भोग तो पापों का कारण है।[1] एक विचारणीय बात है कि पाप और पुण्य का नाश सुखी-दुःखी होने से नहीं होता, प्रत्युत अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति आने से होता है। सुखी-दुःखी होना पाप-पुण्य का फल नहीं है, प्रत्युत अज्ञता (मूर्खता)-का फल है। परन्तु भगवान् का विरह प्रेम का फल है। भगवान् से सम्बन्ध होने पर अज्ञता कैसे रह सकती है! अज्ञता न ज्ञान में रहती है, न प्रेम में। मनुष्य तभी तक सुखी-दुःखी होता है, जब तक उसको अपने स्वरूप का बोध नहीं होता अथवा उसका भगवान् में प्रेम नहीं होता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्वः। महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम्।। (गीता 3/37)
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