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मेरे तो गिरधर गोपाल -स्वामी रामसुखदास
9. साधक कौन?
इसलिये वास्तव में साधक अव्यक्त होकर ही भगवान् का भजन करते हैं। एक पांचभौतिक शरीर होता है और एक अव्यक्त भाव शरीर होता है। भजन-ध्यान वास्तव में भाव शरीर से ही होता है। भजन नाम प्रेम का है- ‘पन्नगारि सुनु प्रेम सम भजन न दूसर आन’।[1] प्रेम भाव शरीर से ही होता है। अतः वास्तव में अव्यक्तमूर्ति ही भगवान् में प्रेम करता है, भगवान का भजन करता है, भगवान् में तल्लीन होता है। उसी को भगवान् मीठे लगते हैं, भगवान की बात अच्छी लगती है, भगवान् की लीला अच्छी लगती है, भगवान् का नाम अच्छा लगता है। भगवान ने कहा है कि यह जीव अनादिकाल से मेरा ही अंश है- ‘ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः’।[2] यहाँ ‘मम एक अंशः’ कहने का तात्पर्य है कि जैसे शरीर में माता-पिता दोनों का अंश है, ऐसे जीव में प्रकृति का अंश नहीं है, प्रत्युत केवल मेरा ही अंश है। प्रकृति का अंश शरीर तो प्रकृति में ही स्थित रहता है, पर जीव परमात्मा का अंश होते हुए भी परमात्मा में स्थित नहीं रहता। वह अपने-आप को संसार में स्थित मानता है, भगवान् में स्थित नहीं मानता। वह प्रकृति में स्थित शरीर- इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि को अपना स्वरूप मान लेता है- ‘मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति’। इसलिये ‘मैं शरीर से रहित हूँ- यह बात उसकी समझ में नहीं आती। मनुष्य की सबसे बड़ी कोई भूल है तो यही है कि वह प्रतिक्षण बदलने वाले शरीर को अपना स्थायी रूप मान लेता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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