मेरे तो गिरधर गोपाल -रामसुखदास पृ. 61

मेरे तो गिरधर गोपाल -स्वामी रामसुखदास

9. साधक कौन?

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ज्ञानमार्ग में पहले साधक समझता है, फिर वह मान लेता है। भक्तिमार्ग में पहले मानता है, फिर समझ लेता है। तात्पर्य है कि ज्ञान में विवेक मुख्य है और भक्ति में श्रद्धा-विश्वास। ज्ञानमार्ग और भक्तिमार्ग में यही फर्क है। दोनों मार्गों में एक-एक विलक्षणता है। ज्ञानमार्ग वाला साधक तो आरम्भ से ही ब्रह्म हो जाता है, ब्रह्म से नीचे उतरता ही नहीं, पर भक्त सिद्ध हो जाने पर, परमात्मा की प्राप्ति हो जाने पर भी ब्रह्म नहीं होता, प्रत्युत ब्रह्म ही उसके वश में हो जाता है! गोस्वामी जी महाराज ने सब ग्रन्थ लिखने के बाद अन्त में विनय-पत्रिका की रचना की। उसमें वे छोटे बच्चे की तरह सीता माँ से कहते हैं-

कबहुँक अंब, अवसर पाइ ।
मेरिऔ सुधि द्याइबी, कछु करुन-कथा चलाइ ।। 1 ।।
दीन, सब अँगहीन, छीन, मलीन, अघी अघाइ ।
नाम लै भरै उदर एक प्रभु-दासी-दास कहाइ ।। 2 ।।
बूझिहैं ‘सो है कौन’, कहिबी नाम दसा जनाइ ।
सुनत राम कृपालु के मेरी बिगरिऔ बनि जाइ ।। 3 ।।
जानकी जगजननि जन की किये बचन सहाइ ।
तरै तुलसीदास भव तव नाथ-गुन-गन गाइ ।। 4 ।।

तात्पर्य है कि सिद्ध, भगवत्प्राप्त होने पर भी भक्त अपने को सदा छोटा ही समझते हैं। वास्तविक दृष्टि से देखा जाय तो ऐसे भक्त ही वास्तव में ज्ञानी हैं। गीता में भी भगवान ने गुणातीत महापुरुष को ज्ञानी नहीं कहा, प्रत्युत अपने भक्त को ही ज्ञानी कहा है।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गीता 7। 16-17

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