मेरे तो गिरधर गोपाल -रामसुखदास पृ. 36

मेरे तो गिरधर गोपाल -स्वामी रामसुखदास

5. सच्ची आस्तिकता

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भगवान ने जीवात्मा के लिये कहा है- ‘नित्यः सर्वगतः’[1], ‘येन सर्वमिदं ततम्’[2] अर्थात् इस जीवात्मा से यह सम्पूर्ण जगत् व्याप्त है, यह नित्य रहने वाला और सबमें परिपूर्ण है। इसलिये साधक को चाहिये कि वह शरीर-अन्तःकरण को न देखकर अपनी सर्वव्यापी सामान्य सत्ता में स्थित हो जाय। जो सब जगह व्याप्त है, वही साधक का स्वरूप है। उसका स्वरूप शरीर-अन्तःकरण में नहीं है। साधक में ‘मैं हूँ’ की मुख्यता न होकर ‘है’ की मुख्यता रहे। जो ‘है’, वही वास्तव में अपना है।

गीता में भगवान ने कहा है- ‘मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति’[3] और सन्त-महात्माओं का भी अनुभव है- ‘वासुदेवः सर्वम्’।[4] भगवान् और उनके भक्त- ये दो ही संसार का अकारण हित करने वाले हैं।[5] इसलिये इन दोनों की बात मान लेनी चाहिये। उनकी बात के आगे हमारी बात का कोई मूल्य नहीं है। हमें भले ही वैसा न दीखे, पर बात उनकी ही सच्ची है। इसलिये हमें जगत को जगत्-रूप से न देखकर भगवत-रूप से ही देखना चाहिये। संसार में जो सात्त्विक, राजस और तामस भाव (गुण, पदार्थ और क्रिया) देखने में आते हैं, वे भी भगवान के ही स्वरूप हैं। भगवान् के स्वरूप होते हुए भी वे गुण हमारे उपास्य नहीं हैं। हमारा उपास्य गुणातीत है। इसलिये भगवान् ने कहा है- ‘न त्वहं तेषु ते मयि’[6] ‘मैं उनमें और वे मुझमें नहीं हैं’। गुण उपास्य इसलिये नहीं हैं कि हमें तीनों गुणों से ऊँचा उठना है। कारण कि जो मनुष्य तीनों गुणों से मोहित होता है, वह गुणातीत भगवान् को नहीं जानता।[7] जो गुणों से मोहित नहीं होते, उनको सब जगह भगवान् ही दीखते हैं, पर गुणों से मोहित मनुष्य को संसार ही दीखता है, भगवान नहीं दीखते।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गीता 2। 24
  2. गीता 2। 17
  3. 7। 7
  4. 7। 19
  5. हेतु रहित जग जुग उपकारी। तुम्ह तुम्हार सेवक अनुरारी॥(मानस उत्तर० 47/3)
  6. गीता 7। 12
  7. त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभि: सर्वमिदं जगत्।
    मोहितं नाभिजानाति मामेभ्य: परमव्ययम्॥(गीता 7/13)

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