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मेरे तो गिरधर गोपाल -स्वामी रामसुखदास
4. मानव शरीर का सदुपयोग
‘चाहे मेरे निर्गुण स्वरूप का चित्त से उपासना करने वाला हो अथवा मायिक गुणों से अतीत मेरे सगुण स्वरूप की सेवा-अर्चना करने वाला हो, वह भक्त मेरा ही स्वरूप है। वह सूर्य की भाँति विचरण करता हुआ अपनी चरण-रज के स्पर्श से तीनों लोकों को पवित्र कर देता है।’ तात्पर्य है कि चाहे भक्त हो या ज्ञानी, उसके चरणों के स्पर्श से पृथ्वी पवित्र हो जाती है। जैसे सूर्य जहाँ जाता है, वहाँ प्रकाश हो जाता है, ऐसे ही वह महात्मा जहाँ जाता है, वहाँ प्रकाश हो जाता है, आनन्द हो जाता है। कारण कि उसके भीतर राग-द्वेष, हर्ष-शोक आदि बिलकुल नहीं होते। इसलिये हमारी यही चेष्टा होनी चाहिये कि राग-द्वेष, काम-क्रोध आदि से पिण्ड छूट जाय। हमारे हृदय में राग-द्वेषादि विकार न रहें। जब तक ये कम न हों, तब तक समझे कि असली सत्संग मिला नहीं है। जब तक मनुष्य में गुण-अवगुण दोनों रहते हैं, तब तक वह साधक नहीं होता। साधक तभी होता है, जब अवगुण मिट जाते हैं। दूसरा उसके साथ वैर करे तो भी उसके हृदय में वैर नहीं होता, उलटे हँसी आती है, प्रसन्नता होती है। वह अनिष्ट-से-अनिष्ट चाहने वाले का भी बुरा नहीं चाहता। कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग-तीनों मार्गों में राग-द्वेष मिट जाते हैं। अतः साधक को देखते रहना चाहिये कि मेरे राग-द्वेष कम हो रहे हैं या नहीं। अगर कम हो रहे हैं तो समझे कि साधन ठीक चल रहा है। साधक में तीन बातें रहनी चाहिये। वह किसी को बुरा मत समझे, किसी का बुरा मत चाहे और किसी का बुरा मत करे। इन तीन बातों का वह नियम ले ले तो उसका साधन बहुत तेज और बढ़िया होगा। इन तीन बातों को धारण करने से वह कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग- तीनों का अधिकारी बन जाता है। इसलिये मेरी साधकों से प्रार्थना है कि वे कम-से-कम इन तीन बातों को धारण कर लें। वे सबकी सेवा करें, सबको सुख पहुँचायें। सुख भी न पहुँचा सकें तो कम-से-कम किसी को दुःख मत पहुँचायें। जो दूसरों को दुःख पहुँचाता है, वह साधन नहीं कर सकता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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