श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग
जाग्रत्, स्वप्न तथा सुषुप्ति-इन तीनों अवस्थाओं के कारण उपाधि यानी क्षेत्र तथा उपाधियुक्त यानी क्षेत्रज्ञ के कारण भाव या अभावरूप से जो कुछ दृश्य होता है, उसके विषय में हे सुविज्ञ! उसे यही दृष्टिगत होता है कि वह सब में ही द्रष्टा हूँ इस बोध के कारण कन्धे पर वर को बैठाये हुए व्यक्ति की भाँति नाचने लगता है। जब यह ज्ञात हो जाता है कि यह रस्सी है, तब यह निश्चय हो जाता है कि उसके विषय में होने वाला सर्पाभास भी रस्सी ही है। जब अलंकार गलाया जाता है तब यह निश्चय हो जाता है कि उसमें लेशमात्र भी कोई ऐसी अलंकारता नहीं थी जो स्वर्ण से पृथक् हो। मनुष्य को जब यह ज्ञात हो जाता है कि जब तरंग वास्तव में जल के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है, तब उस तरंग के आकार को कभी वास्तविक नहीं समझता। नींद खुलने पर स्वप्न-विकारों का ब्योरा रखने वाला स्वयं को छोड़कर और कुछ भी नहीं देख सकता। इसी प्रकार वह पुरुष भी भावरूप से अथवा अभावरूप से ज्ञेय के रूप में मालूम पड़ने वाले सारे पदार्थों के विषय में यही समझता है कि सब कुछ जानने वाला मैं ही हूँ और यही अनुभव करके वह उन सबका उपभोग करता है। उसे इस बात का पता होता है कि मैं अजन्मा, अमर, अक्षय, अक्षर अपूर्व तथा अपार आनन्द हूँ। मैं ही अचल, अच्युत, अनन्त, अद्वय, आद्य, निराकार तथा साकार भी हूँ। मैं ही सत्ता के सम्मुख दबने वाला अथवा जीव भी हूँ तथा उसका संचालन करने वाला ईश्वर भी हूँ और मैं ही अनादि, अविनाशी, निर्भय, आधार तथा आधेय भी हूँ। सत्ताधारी, नित्य, सिद्व, स्वयंभू, सदासर्वरूप, सर्वान्तर्यामी तथा सबसे परे का हूँ। मैं ही नूतन, पुरातन, शून्य तथा सम्पूर्ण भी हूँ। मैं ही स्थूल भी हूँ और सूक्ष्म भी हूँ; जो कुछ है वह सब मैं ही हूँ। मैं ही कर्मशून्य, द्वैतशून्य, संगशून्य तथा शोकशून्य भी हूँ और व्याप्त होने वाला तथा व्याप्त करने वाला पुरुषोत्तम भी मैं ही हूँ। मैं शब्दरहित तथा श्रवणरहित हूँ। मुझमें रूप अथवा गोत्र इत्यादि कुछ भी नहीं है। मैं सब जगह समान तथा स्वयं सिद्ध और परब्रह्म हूँ। |
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