श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग
इस प्रकार के अपनेपन के एकत्व के द्वारा वह मुझे इस अद्वय (एकत्व) भक्ति के सहयोग से सचमुच जानता है और इस बात को भी वह भली-भाँति जानता है कि इस आत्मबोध का अनुभव जो ज्ञान है वह भी मैं ही हूँ। जैसे नींद खुलने पर स्वपनाभास एकदम मिट जाता है, और एकमात्र वह पुरुष ही जो स्वप्न देखता है, रह जाता है और इसका पता जैसे स्वयं उसे ही होता है अथवा जैसे सूर्य जिस समय प्रकट होता है उस समय वही प्रकट करने वाला भी होता है और यह बात भी वही बतलाता है कि प्रकट होने वाला तथा प्रकट करने वाला दोनों अभिन्न हैं, ठीक वैसे ही ज्ञान-विषय का लोप हो जाने के कारण एकमात्र ज्ञाता ही अवशिष्ट रह जाता है और यह बात जिसकी समझ में आती है, वह भी वह स्वयं ही होता है। हे धनंजय, अपनी उस अद्वैतता को जानने की जो ज्ञान शक्ति है, उसके बारे में भी उसकी समझ में यह बात आ जाती है कि वह शक्ति भी सर्वसमर्थ मैं ही हूँ। तदनन्तर वह यह भी जान लेता है कि द्वैत तथा अद्वैत-इन दोनों से परे रहने वाली जो एकमेवाद्वितीय आत्मा है, निःसन्देह वह भी मैं ही हूँ और जिस समय उसे इस ज्ञान का साक्षात् अनुभव होता है, उस समय जैसे उस दशा में, जबकि नींद खुलने पर अपने अकेलेपन का जो भान होता है, उसके भी विनष्ट हो जाने पर यह नहीं कहा जा सकता कि उसका स्वरूप किस प्रकार होगा अथवा नेत्रों से देखते ही जैसे स्वर्ण में स्वर्णपन के साथ-साथ अलंकार का भी लोप हो जाता है अथवा लवण के जलरूप हो जाने पर उस लवण की लवणता उस जल में विद्यमान रहती है, पर उस लवणता के भी न रह जाने पर जैसे लवण का अस्तित्व ही एकदम समाप्त हो जाता है, ठीक वैसे ही जब यह भान भी कि ‘मैं वही परब्रह्म हूँ’ स्वानन्द के अनुभवरूपी शान्त रस में विलीन हो जाता है, तब वह मुझमें प्रवेश करता है। उस दशा में ‘वह’ का भी कहीं नामोनिशान नहीं रह जाता तथा ‘मैं’ के लिये भी कोई स्थान नहीं रह जाता। |
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