श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-3
कर्मयोग
यह सुनकर श्रीअच्युत ने विस्मित होकर कहा-“हे अर्जुन! मेरे कहने का आशय यह है कि मैं तुम्हें बुद्धियोग का तत्त्व स्पष्ट रूप से बतला रहा था, परन्तु उस प्रसंग से स्वभावतः सांख्यमत-निष्ठा कहने में आ गयी; किन्तु उसमें जो हेतु था, वह तुम्हारी बुद्धि में बिल्कुल बैठा ही नहीं; इसलिये तुम्हें इतना निरर्थक कष्ट झेलना पड़ा; परन्तु अब तुम यह बात अच्छी तरह से जान लो कि ये दोनों ही योग मैंने बतलाये हैं। हे वीर शिरोमणि! ये दोनों ही योग अनादिकाल से मुझसे ही प्रकट हुए हैं। इनमें से एक को ज्ञानयोग कहते हैं और सांख्यवादी लोग इस योग का सम्यक् अनुसरण करते हैं। यह ज्ञानयोग जब मनुष्य की समझ में भली-भाँति आ जाता है, तब जीवात्मा उस परमात्मा के साथ मिलकर एकीकृत होकर तन्मय होता है। दूसरे का नाम कर्मयोग है। कर्मयोग सिद्ध पुरुष उचित अवसर आने पर निर्वाण गति प्राप्त करते हैं। वैसे तो ये दोनों मार्ग पृथक्-पृथक् प्रतीत होते हैं, किन्तु परिणाम की दृष्टि से अन्त में ये दोनों मिलकर एक हो जाते हैं, एक तो पका हुआ भोजन रहता है, एक कच्चा अन्न रहता है, पर दोनों का अन्तिम लक्ष्य एकमात्र भूख की निवृत्ति करना ही है अथवा जैसे पूर्व और पश्चिम में बहने वाली दो नदियाँ पृथक्-पृथक् दृष्टिगोचर होती हैं, परन्तु समुद्र में मिलते ही वे दोनों एकरूप ही हो जाती हैं; ठीक वैसे ही ज्ञानयोग और कर्मयोग-ये दोनों योग एक साध्य का निर्देश करते हैं और केवल अधिकारी के विचार से उनकी उपासना का प्रकार पृथक्-पृथक् है। देखो, पक्षी तो उड़कर झट से फल तक पहुँच जाता है; पर क्या मनुष्य भी पक्षी की ही भाँति उड़कर फल के पास पहुँच सकता है? वह तो धीरे-धीरे एक डाल से दूसरे डाल के सहारे आगे बढ़ता हुआ अपने दृढ़ निश्चय की सामर्थ्य से कुछ समय के बाद ही अभीष्ट फल प्राप्त करता है। बस, उसी पक्षी वाली पद्धति से सांख्य तो ज्ञान की सामर्थ्य से सद्यः मोक्ष प्राप्त कराता है, परन्तु कर्मयोगी वेदों में वर्णित ऐसे कर्मों को करता है जो उसके स्वधर्म के लिये विहित होते हैं और तब उचित समय आने पर वह पूर्णता अर्थात् मोक्ष को प्राप्त करता है।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (32-44)
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