ज्ञानेश्वरी पृ. 75

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-3
कर्मयोग


न कर्मणामनारम्भान्नैष्कमर्यं पुरुषोऽश्नुते ।
न च सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ॥4॥

आरम्भ में जिन उचित और विहित कर्मों को करना नितान्त आवश्यक होता है, यदि उन कर्मों को बिना किये ही कोई यह दावा करे कि मैं सिद्धों की भाँति कर्म का त्याग कर दूँगा, तो उस कर्महीन मनुष्य के लिये वह निष्कर्मता कदापि प्राप्त नहीं हो सकेगी। हे अर्जुन! जो कर्तव्य कर्म प्राप्त हुए हैं, उन्हीं का त्याग कर बैठ जाना और फिर यह समझ लेना कि इतने से ही निष्कर्मता सिद्ध हो जायगी यह बात मूर्खता की है। देखो, वेगवती नदी को पार करना जहाँ संकटपूर्ण हो, वहाँ नाव का त्याग कर देना क्या कोई समझदारी का काम होगा? अथवा यदि भूख मिटाने की चाह हो तो उस समय भोजन क्यों न पकाया जाय? अथवा यदि भोजन पका लिया गया हो तो खाया क्यों न जाय? जब तक वासना का नाश नहीं होता, तब तक कर्म पीछा नहीं छोड़ते। हाँ, जिस समय मनुष्य पूर्ण सन्तुष्ट (आत्मतृप्त) हो जाता है, उस समय सारे कर्म स्वतः ही बन्द हो जाते हैं। इसलिये हे पार्थ! सुनो। जिसको नैष्कर्म्य की इच्छा हो उसे उचित कर्म अर्थात् स्वधर्म के लिये विहित कर्मों को छोड़ना उचित नहीं है। इसके अलावा एक बात और है कि यदि अपनी इच्छानुसार कर्म किये जायँ तो वे कर्म सिद्ध हो जाते हैं और यदि उन्हें छोड़ दिया जाय तो फिर वे कर्म रह ही नहीं जाते, उनका सदा सर्वदा के लिये क्षय हो जाता है। किन्तु ऐसी व्यर्थ बातें केवल पागलपन की ही उपज हैं। हे पार्थ! यदि अनुभव करके देखो तो तुम निश्चितरूप से यह बात जान लोगे कि केवल कर्म छोड़ देने से ही कर्म से छुटकारा नहीं मिलता।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (45-52)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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