श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-3
कर्मयोग
हे श्रीकृष्ण! आपकी यह लीला मेरे समझ में नहीं आ रही है। यदि आप इसी बहाने मेरे मन को टटोलना चाहते हों, तो मुझे इस बात का जरा-सा भी भान नहीं होता है कि आप मुझे भुलावा दे रहे हैं अथवा इस गूढ़ प्रकार से सचमुच मुझे कोई तत्त्व की बात बतला रहे हैं। इसलिये हे देव! सुनिये। अब आप कृपापूर्वक अपनी इस गूढ़ भाषा को बन्द करें तथा स्पष्ट और सरल भाषा में अपने विचार मुझे बतलावें। मैं बहुत ही मतिमन्द हूँ, इसलिये आप ऐसी निश्चित बात कहें जो मुझ-जैसे कम समझ वाले व्यक्तियों के समझ में ठीक तरह से आ जाय। जब कोई रोगी को नीरोग करने की बात सोच लेता है, तब उसे दवा तो देनी-ही-देनी पड़ती है। परन्तु जैसे उस दवा का मधुर एवं रुचिकर होना ज्यादा ठीक होता है, वैसे ही गूढ़ अर्थों से भरी हुई तत्त्व की बातें तो आप बतलावें, किन्तु वे बातें ऐसी हों जो भली-भाँति मेरी समझ में आ सकें। हे देव! आप आत्मबोध कराने वाले गुरु हों तो फिर मैं भी अपनी इच्छा की तृप्ति क्यों न कर लूँ? हे देव! जब आप ही हमारी प्रेम करने वाली माँ हैं, तो फिर संकोच किस बात का? जब अनायास ही दुग्धवती कामधेनु हाथ लग जाय, तो फिर इच्छा करने में संकोच क्यों करें? कदाचित् अपने हाथ में चिन्तामणि लग जाय, तो मनोरथ पूर्ण होने में कौन-सी अड़चन आयेगी? फिर क्यों न अपने इच्छा के अनुसार माँगे? देखिये, यदि सुधासिन्धु पर पहुँचकर भी मारे प्यास के तड़फड़ाना ही पड़े तो फिर सुधा-सिन्धु तक जाने का परिश्रम ही क्यों किया जाय? वैसे ही हे लक्ष्मीपति! जन्म-जन्मान्तर से उपासना-आराधना करने के बाद जब आप संयोग से इस समय मुझे मिल गये हैं, तो हे परमेश्वर! आपसे मैं मनचाही वस्तु क्यों न माँग लूँ? हे देव! आपकी प्राप्ति से मेरे मन को अत्यन्त आह्लाद हुआ है। देखिये, आज मेरी सब इच्छाओं को नूतन जीवन मिला हुआ है, मेरे अनेक जन्मों के पुण्य सफल हुए हैं और मेरे मनोरथों को आज विजयश्री प्राप्त हुई है। इन सबका एक ही कारण है, सब मंगलों का मयका (पीहर), सब देवों के देव; ऐसी जो आपकी महिमा है, वही आप हम लोगों के अधीन हैं। जिस प्रकार माता का स्तनपान करने के लिये बालक को कभी अवसर की तलाश नहीं करनी पड़ती है और वह जब चाहता है तभी अपनी माता का स्तनपान कर सकता है, ठीक उसी प्रकार हे देव! हे कृपानिधि! अब मैं आपसे अपनी इच्छानुसार प्रश्न पूछता हूँ। इसलिये आप मुझे निश्चयपूर्वक कोई ऐसी बात बतलावें जो इहलोक में आचरण के लायक हो, योग्य हो और मरने के बाद सद्गति देने वाली हो।”[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (6-31)
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