श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग
देव, मनुष्य और स्थावर को ही संसार कहते हैं और ये तीनों ही कर्मफल के प्रकार हैं। इष्ट, अनिष्ट और इष्टानिष्ट भेद से कर्मफल भी तीन प्रकार के होते हैं। जब बुद्धि विषयों से अंकित हो जाती है तथा जीव अधर्म में प्रवृत्त होकर बुरे कर्म करने लगते हैं, तब वे कृमि, कीट तथा मिट्टी और कंकड़-पत्थर इत्यादि के नीचे देह प्राप्त करते हैं। इन्हीं को अनिष्ट कर्मों का फल जानना चाहिये। पर जब स्वधर्म का सम्मान करते हुए तथा अपने अधिकार पर ध्यान रखते हुए वे वेद और शास्त्रों के आज्ञानुसार पुण्य-कर्मों का आचरण करते हैं, तब हे सव्यसाची! वे इन्द्र इत्यादि देवताओं के उत्तम शरीर प्राप्त करते हैं। इन्हीं को इष्ट कर्मों का फल कहते हैं। खट्टे-मीठे रसों के मिलने से एक तीसरा ही रस उत्पन्न होता है और योग की साधना में रेचक के सहयोग से ही कुम्भक भी होता है। इसी प्रकार जब सत्य-असत्य परस्पर मिलकर एक हो जाते हैं, तब सत्य-असत्य दोनों से भिन्न एक और विचित्र पदार्थ की उत्पत्ति होती है। इसीलिये शुभ और अशुभ फलों के मेल से जिस कर्मफल की सृष्टि होती है, उसी के योग से मानव-देह की उपलब्धि होती है। इसी का नाम कर्मों का इष्टानिष्ट यानी मिश्रफल है। सारे संसार में यही तीन प्रकार के कर्मफल फैले हुए हैं और जो जीव आशा के चक्कर में पड़े रहते हैं, उनके लिये उन फलों को भोगने के अलावा अन्य कोई उपाय ही नहीं रह जाता। जिस समय जिह्वा का पानी गिरने लगता है, उस समय दूषित पदार्थों का सेवन बहुत रुचिकर लगता है; परन्तु अन्त में उन्हीं पदार्थों के कारण व्यक्ति को मृत्यु का ग्रास बनना पड़ता है। जब तक मनुष्य जंगल में नहीं पहुँचता तभी तक उसे ठगों की दोस्ती रुचिकर जान पड़ती है और जब तक वेश्या के साथ अंग स्पर्श नहीं होता, तभी तक वह देखने में रूपवती जान पड़ती है। ठीक इसी प्रकार कर्मों का आचरण करने से अंगों में प्रौढ़ता का संचार होने लगता है; पर अन्ततः उन कर्मों के फल एकदम से आक्रमण कर बैठते हैं। |
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