श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग
हे धनंजय! वास्तव में कर्मफल त्रिविध हैं और जो कर्मफल की आशा का परित्याग नहीं करता, उसी को कर्म के फल भोगने पड़ते हैं। कन्या को जन्म देने वाला उसका पिता यह कहकर अपनी उस कन्या को दूसरे को दान कर देता है कि यह मेरी नहीं है और इस प्रकार वह पिता अपने उत्तरदायित्व से मुक्त हो जाता है और उस कन्या का ग्रहीता उसका जामाता जंजाल में फँस जाता है। जहरीली वनस्पतियाँ उत्पन्न करने वाले लोग उन वनस्पतियों को दूसरे के हाथ बेच देते हैं और स्वयं उनसे धनार्जन करके सुखपूर्वक जीवनयापन करते हैं; पर जो लोग उन वनस्पतियों को खरीदकर उनका सेवन करते हैं, वही अपने प्राण गँवा बैठते हैं। ठीक इसी प्रकार कर्ता भले ही समस्त कर्म सम्पादित करे, पर यदि वह अपने मन में उन कर्मों के फलों की आशा न रखे तो वह अकर्ता ही रहता है और इन दोनों बातों को केवल कर्म बाँध नहीं सकते। मार्ग में स्थित वृक्षों के फल उन्हीं लोगों के हाथ लगते हैं जो उन्हें पाने की लालसा करते हैं। ठीक इसी प्रकार कर्मफल भी उन्हीं लोगों को मिलते हैं जो उन्हें पाने की अभिलाषा करते हैं। परन्तु कर्मों का आचरण करके भी जो उनके फल ग्रहण नहीं करता, वही इस संसार-चक्र में कभी नहीं फँसता; क्योंकि यह सम्पूर्ण त्रिविध संसार कर्मों का ही फल है। |
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