श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-17
श्रद्धात्रय विभाग योग
बस यही बात श्रीलक्ष्मीपति ने अर्जुन से कही थी। तदनन्तर उन्होंने फिर कहा-“समस्त मन्त्रों का राजा जो प्रणव यानी ओंकार है, उसे इस नाम का आदि वर्ण समझना चाहिये। उसका द्वितीय वर्ण तत् है और तृतीय वर्ण सत् है। इस प्रकार यही ओम् तत् सत् उस ब्रह्म का तिहरा नाम है। उपनिषदों के अर्थ अथवा साररूपी इस सुन्दर पुष्प की सुगन्धि का तुम उपभोग करो। जब इस नाम के साथ एकरूप होकर सात्त्विक कर्मों का सम्पादन किया जाता है, तभी मनुष्य मोक्ष को अपने घर का चाकर बना लेता है। हो सकता है कि भाग्यवश हमें कर्पूर के अलंकार भी मिल जायँ; पर यह समझना अत्यन्त कठिन है कि वे अलंकार शरीर पर पहने किस प्रकार जायँगे। ठीक इसी प्रकार यदि सत्कर्मों का आचरण भी किया जाय और ब्रह्म और ब्रह्म का नामोच्चारण भी किया जाय तो भी यदि विनियोग (शास्त्रोक्त विधि) का ज्ञान न हो तो जैसे अनगिनत साधुजनों के घर आने पर भी उनका उचित सम्मान न हो सकने के कारण अपने पास का पुण्य भी नष्ट हो जाता है, वैसे ही अथवा जैसे आभूषण धारण करने की अभिलाषा से कुछ नग और स्वर्ण के टुकड़े इत्यादि कहीं से जुटा करके यूँ बाँधकर गले में लटका लिये जाते हैं‚ यदि मुख ब्रह्म का नामोच्चारण करता हो और हाथों से सात्त्विक कर्म भी सम्पन्न होते हों, पर यदि उनके विनियोग का ज्ञान न हो तो ये सारे-के-सारे कृत्य व्यर्थ हो जाते हैं। अन्न तथा भूख दोनों पास ही रहते हैं; पर यदि बालक को भोजन ग्रहण करने की कला न आती हो तो फिर उसे उपवास का ही सामना करना पड़ेगा। अथवा हे वीर शिरोमणि अर्जुन! यदि तेल, बत्ती और अग्नि-तीनों एक साथ ही हों, पर इन तीनों को व्यवस्थित करके जलाने की योजना न मालूम हो तो प्रकाश किसी प्रकार प्राप्त नहीं हो सकता। ठीक इसी प्रकार यदि समयानुसार कर्म भी होता हो तथा उसका मन्त्र भी स्मरण हो, पर उसके विनियोग का रत्तीभर भी ज्ञान न हो तो सब-की-सब बाते निष्फल हो जाती हैं। इसलिये इन तीनों वणों के योग से निर्मित परब्रह्म का जो एक नाम है, उसका विनियोग तुम ध्यानपूर्वक सुनो।[1] |
टीका टिप्पडी और संदर्भ
- ↑ (328-353)
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