श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-17
श्रद्धात्रय विभाग योग
हे अर्जुन! इस प्रकार जो दान वह किसी को देता है, उसका वह तामसी दान करने वाला उस दान ग्रहण करने वाले से बार-बार उल्लेख भी करता जाता है और खरी-खोटी बातें कहकर उसका तिरस्कार भी करता चलता है। पर इस विषय का विस्तार बहुत हो चुका। हे सुविज्ञ अर्जुन! इस प्रकार जो धन दान किया जाता है‚ उसे सब जगह तामस दान ही कहते हैं। इस प्रकार मैंने तुम्हें राजस इत्यादि त्रिविध दान लक्षणों सहित स्पष्ट रूप से बतला दिये हैं, पर हे अर्जुन! मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि कदाचित् तुम्हारे मन में ऐसी कल्पना उठ सकती है कि यदि संसार में मोक्ष दिलाने वाले एकमात्र सात्त्विक कर्म ही है, तो फिर अन्य बन्धनकारक दुष्ट कर्मों का वर्णन क्यों होता है? तो इसका समाधान यही है कि भूत को भगाये बिना भूमि में गड़ा हुआ धन हाथ नहीं लगता और न धूएँ का कष्ट सहे बिना दीपक की बत्ती ही प्रज्वलित होती है। इसीलिये शुद्ध सत्त्व को छिपाने वाले जो-जो रज तथा तम के आवरण हैं, उन आवरणों को हटाने का कृत्य भला कैसे बुरा कहा जा सकता है? मैंने जो अभी यह बतलाया है कि श्रद्धा से लेकर दानपर्यन्त सम्पूर्ण कर्मसमूह त्रिगुणों से व्याप्त रहते हैं, उनमें से मैं सिर्फ तीन ही प्रकारों का विवेचन करना चाहता था; पर सत्त्व का सम्यक् स्वरूप स्पष्ट करने के लिये ही मैंने अन्य प्रकारों का विवेचन किया है। जो वस्तु दूसरी दो वस्तुओं के मध्य प्रान्त में दबी हुई रहती है, उसका स्मयक् स्वरूप तभी स्पष्ट होता है, जब उस वस्तु को दबाने वाली शेष दोनों वस्तुओं का स्वरूप स्पष्ट कर दिया जाय। जिस समय अहर्निश का परित्याग कर दिया जाय, उस समय सन्ध्याकाल का ठीक-ठीक प्रत्यय हो जाता है। ठीक इसी न्याय से जिस समय रज और तम का अवसान हो जाता है, उस समय जो सत्त्व अवशिष्ट रह जाता है, वह स्वतः मूर्तिमान् होकर सामने आ जाता है। इसी विचार से तथा सत्त्व का सम्यक् ज्ञान तुम्हें कराने के लिये ही मैंने इस समय रज और तम का भी निरूपण किया है। तुम रज और तम का त्यागकर सत्त्वगुण के सहयोग से अपने कर्तव्य का पालन करो। तुम शुद्ध सत्त्वगुण से युक्त होकर ही यज्ञ इत्यादि कर्मों को सम्पन्न करो, बस फिर तुम्हें अपने आत्मस्वरूप की उपलब्धि हो जायगी। |
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