ज्ञानेश्वरी पृ. 669

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-17
श्रद्धात्रय विभाग योग


अदेशकाले यद्दानमपात्रेभ्यश्च दीयते ।
असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम् ॥22॥

हे पार्थ! मलेच्छों की बस्ती में, अरण्य में, अपवित्र स्थल में, शिविर में अथवा नगर के चतुष्पथ पर, सन्ध्याकाल अथवा रात को चोरी का धन दान करना और वह दान भी भाट, बाजीगर, वेश्या अथवा जुआरी-सरीखे ऐसे लोगों को जो अत्यन्त भ्रम में पड़े हों और अन्यों को ठगते हों; तिस पर सामने रूपवती स्त्रियों का नृत्य होता हो, आँखों में चर्बी छायी हो, भाटों के द्वारा की हुई स्तुतियाँ निरन्तर श्रवणेन्द्रियों में पड़ती हों, ऐसे समय में जबकि पुष्पों और दूसरे सुगन्धित द्रव्यों की सुगन्धों के कारण अंगों में मानो विषयरूपी लोभ के बेताल का ही संचार हो रहा हो, समस्त विश्व को लूटकर एकत्रित किया हुआ ऐश्वर्य इस प्रकार दान करना कि मानो दुष्टों के लिये अन्नसत्र ही खोल दिया गया हो, ऐसे दान को मैं तामस दान कहता हूँ। इसके सिवा कभी-कभी दैवयोग से एक और प्रकार भी हो जाता है। वह भी ध्यानपूर्वक सुनो।

जैसे कीड़ों के द्वारा भक्षण की हुई लकड़ी पर रेखाओं के योग से कभी-कभी कुछ अक्षर निर्मित हो जाते हैं अथवा ताली बजाते समय स्वतः कोई काक करतलों के बीच में आ जाता है, ठीक वैसे ही यदा-कदा तामस व्यक्ति के लिये भी शुभ काल तथा पवित्र स्थल का योग मिल जाय और ऐसे योग पर कोई इस प्रकार का व्यक्ति भी उसके पास दान माँगने के लिये आ जाय, जो वास्तव में दान ग्रहण करने का सत्पात्र हो और धन की आवश्यकता के कारण यह याचना कर बैठे, तो उस तामस व्यक्ति के मन में श्रद्धा का कहीं नामोनिशान भी नहीं होता, अतछ वह उस अतिथि को नमन भी नहीं करता और न स्वयं ही अर्घ्य इत्यादि से उसका आदर-सत्कार करता है न किसी अन्य से ही इस प्रकार उसका आदर-सत्कार कराता है, यहाँ तक कि आगन्तुक के बैठने के लिये उसे आसन तक नहीं देता। ऐसी स्थिति में गन्धादि के द्वारा उसकी पूजा करने का तो कोई सवाल ही नहीं उठता। हे किरीटी! तामसी व्यक्तियों के हाथों इसी प्रकार का अमर्यादित तथा अशास्त्रीय व्यवहार होता है। यदि उसने उस याचक का बहुत सत्कार किया तो ठीक वैसे ही उसके हाथ पर अत्यल्प द्रव्य रख देता है, जैसे कोई ऋणी व्यक्ति तगादा करने वाले के हाथ पर कुछ रखकर अपना पिण्ड छुड़ाता है और इस प्रकार दान देते समय भी उसके मुख से अपमानकारक बातें निरन्तर निकलती रहती हैं।

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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