श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-17
श्रद्धात्रय विभाग योग
पर जैसे दूध पाने की लालसा को मन में पालकर गौ को चारा दिया जाता है अथवा अनाज से अपना भण्डार भरने के लिये खेत में बीज बोये जाते हैं अथवा व्यवहार की ओर दृष्टि रखकर अपने सगे-सम्बन्धियों को निमन्त्रण दिया जाता है अथवा जैसे किसी व्रतस्थ व्यक्ति के यहाँ कुछ खाद्य सामग्री भेजी जाती है, जिसके सम्बन्ध में यह निश्चय रहता है कि वह किसी-न-किसी रूप में अवश्य ही लौटा देगा अथवा जैसे पुरस्कारस्वरूप प्राप्त द्रव्य पहले अपनी गाँठ में बाँध दिया जाता है और फिर पुरस्कार प्रदाता का कार्य सम्पन्न किया जाता है अथवा जैसे द्रव्य लेकर रोगी की चिकित्सा की जाती है, वैसे ही जो दान इस दृष्टि से दिया जाता है कि उस दान के द्वारा आगे चलकर हमारा कुछ उपकार होगा अथवा मार्ग में चलते समय किसी ऐसे उत्तम ब्राह्मण के मिल जाने पर जिसे दिया हुआ दान कभी किसी रूप में वापस नहीं मिल सकता, उसे दानरूप में एक कौड़ी दे दी जाती है और अपने समस्त वंशजों के प्रायश्चित्त के संकल्प का जल उसके हाथ पर रख दिया जाता है, ठीक वैसे ही नाना प्रकार के परलोकविषयक सुखपूर्ण फलों का ध्यान रखकर इतना अल्प दान दिया जाता है जो किसी की भूख की निवृत्ति के लिये यथेष्ट न हो और वह अत्यल्प दान भी जिस समय ब्राह्मण लेकर चलने लगता है, उस समय यजमान को मानो ऐसा प्रतीत होता है कि हमारे घर डाका पड़ा है और हमारा सर्वस्व हरण कर लिया गया है और यही कारण है कि वह अपने मन में बेचैन होने लगता है। हे सुविज्ञ! ऐसी मनोवृत्ति से जो दान दिया जाता है उस दान को राजस दान कहते हैं।[1] |
टीका टिप्पडी और संदर्भ
- ↑ (285-293)
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