ज्ञानेश्वरी पृ. 668

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-17
श्रद्धात्रय विभाग योग


यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुन:।
दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम् ॥21॥

पर जैसे दूध पाने की लालसा को मन में पालकर गौ को चारा दिया जाता है अथवा अनाज से अपना भण्डार भरने के लिये खेत में बीज बोये जाते हैं अथवा व्यवहार की ओर दृष्टि रखकर अपने सगे-सम्बन्धियों को निमन्त्रण दिया जाता है अथवा जैसे किसी व्रतस्थ व्यक्ति के यहाँ कुछ खाद्य सामग्री भेजी जाती है, जिसके सम्बन्ध में यह निश्चय रहता है कि वह किसी-न-किसी रूप में अवश्य ही लौटा देगा अथवा जैसे पुरस्कारस्वरूप प्राप्त द्रव्य पहले अपनी गाँठ में बाँध दिया जाता है और फिर पुरस्कार प्रदाता का कार्य सम्पन्न किया जाता है अथवा जैसे द्रव्य लेकर रोगी की चिकित्सा की जाती है, वैसे ही जो दान इस दृष्टि से दिया जाता है कि उस दान के द्वारा आगे चलकर हमारा कुछ उपकार होगा अथवा मार्ग में चलते समय किसी ऐसे उत्तम ब्राह्मण के मिल जाने पर जिसे दिया हुआ दान कभी किसी रूप में वापस नहीं मिल सकता, उसे दानरूप में एक कौड़ी दे दी जाती है और अपने समस्त वंशजों के प्रायश्चित्त के संकल्प का जल उसके हाथ पर रख दिया जाता है, ठीक वैसे ही नाना प्रकार के परलोकविषयक सुखपूर्ण फलों का ध्यान रखकर इतना अल्प दान दिया जाता है जो किसी की भूख की निवृत्ति के लिये यथेष्ट न हो और वह अत्यल्प दान भी जिस समय ब्राह्मण लेकर चलने लगता है, उस समय यजमान को मानो ऐसा प्रतीत होता है कि हमारे घर डाका पड़ा है और हमारा सर्वस्व हरण कर लिया गया है और यही कारण है कि वह अपने मन में बेचैन होने लगता है। हे सुविज्ञ! ऐसी मनोवृत्ति से जो दान दिया जाता है उस दान को राजस दान कहते हैं।[1]

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टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (285-293)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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