श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-17
श्रद्धात्रय विभाग योग
वह पात्र ऐसा परम पवित्र ब्राह्मण श्रेष्ठ होना चाहिये जो सदाचार का उत्पत्ति स्थान तथा वेद-ज्ञान का संग्रहालय हो। जब इस प्रकार का उत्तम पात्र मिल जाय, तब अपनी सम्पत्ति पर से अपना स्वामित्व हटाकर वह सम्पत्ति उसे अर्पण करना चाहिये, पर यह काम ठीक वैसे ही सम्पन्न करना चाहिये, जैसे पत्नी अपने पति के सम्मुख मर्यादापूर्वक जाती है, जैसे कोई सज्जन व्यक्ति अपने पास धरोहर के रूप में रखी हुई किसी की वस्तु उसे वापस करके भार से मुक्त होता है अथवा कोई परिचारक अत्यन्त विनम्रतापूर्वक किसी राजा को ताम्बूल प्रदान करता है। बस ठीक इसी प्रकार निष्काम मन से उस ब्राह्मण श्रेष्ठ को भूमि इत्यादि दान देनी चाहिये। सारांश यह कि दान देते समय किसी प्रकार की फलाशा अपने मन में अंकुरित होने नहीं देनी चाहिये। इसके सिवा दान देने हेतु जिस व्यक्ति की तलाश की जाय, वह ऐसा होना चाहिये जो लिये हुए दान का बदला कभी भी चुका न सकता हो। जैसे आकाश को बुलाने पर उससे कोई प्रत्युत्तर नहीं मिलता अथवा दर्पण के अलावा किसी दूसरी ओर देखने से दर्पण में अपना प्रतिबिम्ब नहीं दिखायी देता अथवा जल से भरे हुए स्थान पर फेंका हुआ गेंद जैसे पुनः लौटकर हमारे हाथ नहीं आता अथवा जैसे उत्सर्ग किये हुए साँड़ को दिया हुआ चारा अथवा कृतघ्न के साथ किया हुआ उपकार कभी भी फलप्रद नहीं होता, ठीक वैसे ही दाता को भी यही चाहिये कि वह ऐसे ही व्यक्ति को दान दे, जिससे फिर उस दान का कोई अंश अथवा उसके बदले में अन्य कोई उपकार इत्यादि प्राप्त न हो सकता हो। मैं दाता हूँ और वह गृहीता है, इस प्रकार का भेदभाव अपने मन में दान देते समय नहीं आने देना चाहिये। हे वीर शिरोमणि! जब इन सब बातों का योग होने पर दान किया जाता हो, तब उसी दान को सात्त्विक दान की कोटि में गिना जाना चाहिये। वही दान निर्दोष तथा शास्त्रोक्त होता है, जो देश, काल तथा सत्पात्र को ध्यान में रखकर किया जाता है।[1] |
टीका टिप्पडी और संदर्भ
- ↑ (266-284)
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