ज्ञानेश्वरी पृ. 666

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-17
श्रद्धात्रय विभाग योग


दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे ।
देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम् ॥20।।

स्वधर्मानुसार आचरण करने में जो कुछ धन प्राप्त हों, वे अत्यन्त आदरपूर्वक दूसरे को देने चाहिये। यदा-कदा यह भी देखने में आता है कि उत्तम बीज तो प्राप्त हो जाते हैं, पर बोनेहेतु उत्तम खेत प्राप्त नहीं होता। प्रायः दान के विषय में भी ठीक इसी तरह की बात दृष्टिगत होती है। जब-तब ऐसा भी होता है कि अनमोल हीरा तो हाथ लग जाता है, पर ऐसा स्वर्ण उपलब्ध नहीं होता जिसमें वह जड़ा जा सके अथवा यदि हीरा और स्वर्ण दोनों मिल जायँ तो फिर उनसे निर्मित अलंकार धारण करने के लिये अंग ही नहीं होता। बस इसी तरह की बात दान के विषय में भी दृष्टिगत होती है। पर जिस समय मनुष्य भाग्योदय होता है, उस समय जैसे शुभ समय अथवा त्योहार, जीवन सखा और सम्पत्ति-तीनों का योग हो जाता है, वैसे ही दान के सहयोग के लिये जिस समय सत्त्वगुण का पदार्पण होता है, उस समय दान के योग्य स्थल, पात्र, काल तथा द्रव्य के चारों साधन उपस्थित हो जाते हैं। अतः उचित दान करने के लिये सर्वप्रथम कुरुक्षेत्र, काशीक्षेत्र अथवा इन्हीं की भाँति किसी अन्य पवित्र क्षेत्र तक प्रयत्नपूर्वक पहुँचना चाहिये। फिर वहाँ पहुँचकर पूर्णिमा अथवा अमावस्या का पुण्यकाल अथवा इसी प्रकार का अन्य कोई शुद्धकाल देखना चाहिये। फिर ऐसे स्थल और ऐसे काल में दान के योग्य कोई उपयुक्त पात्र ढूँढ़ना चाहिये। वह पात्र मूर्तिमान् तथा शुद्ध ही होना चाहिये।

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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