श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-17
श्रद्धात्रय विभाग योग
जो लोग शास्त्रों का नामोच्चारण करने के लिये अपना गला स्वच्छ करने का भी विचार नहीं करते, सिर्फ यही नहीं, जिन्हें शास्त्र जानने वालों का सम्पर्क भी सहन नही होता, जो श्रेष्ठजनों का व्यवहार देखकर बन्दरों की भाँति उनकी नकल उतारते तथा चुटकियाँ बजा-बजाकर उनकी खिल्ली उड़ाते हैं और अपने ही बड़प्पन के अभिमान में तथा ऐश्वर्यमद से धर्मभ्रष्ट क्रियाओं का आचरण करते हैं, जो लोग अपने तथा दूसरों के अंगों में लकड़ी काटने के यंत्र से घाव करके रक्त और मांस से यज्ञपात्र पूरा-पूरा भरते हैं और फिर उन्हें जलते हुए यज्ञकुण्ड में डालते हैं तथा कुछ विशिष्ट देवताओं के मुख में लगाते हैं, जो अपनी मनौती पूर्ण करने के लिये बच्चों की बलि चढ़ाते हैं, जो क्षुद्र देवताओं का वर पाने के लिये आग्रहपूर्वक सात-सात दिनों तक उपवास करते हैं, हे अर्जुन! वे तमोगुणरूपी क्षेत्र में आत्मक्लेश तथा दूसरों के लिये पीड़ारूपी बीज बोते हैं; और फिर वही बीज अंकुरित होकर अपनी जाति की फसल तैयार करते हैं। हे धनंजय! फिर इस प्रकार के व्यक्तियों की वैसी ही दशा होती है, जैसी उस व्यक्ति की होती है, जिसके पास न तो हाथ ही होते हैं और न तो नाव का ही आश्रय ग्रहण करता है, पर फिर भी जो समुद्र में पड़ जाता है अथवा जैसे वह व्याधिग्रस्त व्यक्ति स्वयं ही पीड़ा से व्याकुल होता है जो वैद्यों से भी विरोध करता है तथा औषधि को भी उठाकर फेंक देता है अथवा सहारा देने वाले व्यक्ति के साथ लड़ाई करके स्वयं ही अपनी आँखें फोड़ लेने वाले अन्धे की अपने ही गृह में जो दुर्दशा होती है, ठीक वैसी ही दुर्दशा उन लोगों की भी होती है, जो शास्त्रों का आश्रय तिरस्कारपूर्वक त्याग देते हैं और मोह के वशीभूत होकर भयंकर वनों में इधर-उधर भटकते हैं। इस प्रकार के लोग वही काम करते हैं, जिस काम के लिये विषय-वासनाएँ उनसे कहती हैं। वे उसी को मारते हैं, जिसे मारने के लिये क्रोध कहता है, सिर्फ यही नहीं, बल्कि सबके हृदय में निवास करने वाला जो ‘मै’ हूँ, उस ‘मुझ’ को भी वे दुःखरूपी पत्थरों के नीचे दबा देते हैं।[1] |
टीका टिप्पडी और संदर्भ
- ↑ (93-104)
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