ज्ञानेश्वरी पृ. 654

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-17
श्रद्धात्रय विभाग योग


कर्शयन्त: शरीरस्थं भूतग्राममचेतस: ।
मां चैवान्त:शरीरस्थं तान्विद्ध्यासुरनिश्चयान् ॥6॥

इस प्रकार के लोग अपने तथा दूसरों के शरीर को जो-जो क्लेश पहुँचाते हैं, उन सबकी सारी पीड़ा मुझ आत्मा को ही होती है। वास्तव में ऐसे पापियों का सम्पर्क वाणी से भी नहीं होने देना चाहिये; पर ये समस्त बातें इसलिये कहना आवश्यक हुआ है कि सबको इस बात का बोध हो जाय कि ऐसे पापियों से सदा दूर रहना चाहिये और इसलिये इस समय उनका उल्लेख किये बिना काम ही नहीं चल सकता। देखो, मरे हुए शरीर को हाथों से उठाकर घर से बाहर निकालना पड़ता है, अन्त्यज को मार्ग बतलाने के लिये उसके साथ बातें करनी पड़ती हैं, सिर्फ यही नहीं, बल्कि मल का प्रक्षालन हाथों से करना पड़ता है, पर यह आशा बनी रहती है कि ये सब काम करके हम शुद्ध हो जायँगे और इसीलिये जैसे हम इस तरह की बातों में कोई अपशकुन नहीं मानते, वैसे ही आसुरी स्वभाव को दूर करने के लिये ही यहाँ उसका वर्णन किया गया है।

इसलिये हे पार्थ! यदि कभी ऐसे असुरों की मुलाकात तुम्हें हो जाय तो उस समय तुम हमारा स्मरण करो, क्योंकि इस पाप की निवृत्ति किसी अन्य प्रायश्चित्त् से नहीं हो सकती। इसीलिये जिस सात्त्विक श्रद्धा का मैं अभी विवेचन करना चाहता हूँ, उसका सम्यक् प्रकार से संग्रह और रक्षण करना चाहिये। एतदर्थ ऐसे ही लोगों का संग करना चाहिये जिनसे सत्त्वगुण को बल प्राप्त हो तथा ऐसे ही आहार का सेवन करना चाहिये, जिससे सत्त्वगुण की वृद्धि हो। प्रायः यही देखा जाता है कि स्वभाव की वृद्धि को बल प्रदान करने वाला अन्न के अलावा अन्य कोई साधन नहीं है। हे वीर शिरोमणि! यह तो प्रत्यक्ष ही दिखयी देता है कि जिसका होश ठिकाने हो, वह जब मदिरा का सेवन कर लेता है, तब तत्काल ही वह उन्मत्त हो जाता है। जो सदा अन्न-रस का ग्रहण करता है, उसे सहज ही वात इत्यादि विकार ग्रस लेते हैं। यदि किसी व्यक्ति को भीषण ज्वर सता रहा हो तो क्या वह ज्वर दूध इत्यादि के सेवन से कम होता है? जैसे अमृत पीने से मनुष्य मृत्यु से बच जाता है अथवा विष जैसे समस्त अंगों में पहुँचकर उन्हें विषाक्त कर देता है, ठीक वैसे ही जिस तरह के आहार का ग्रहण किया जाय, उसी तरह का धातु-रस बनता है और धातु-रस के अनुसार ही मनुष्य के चित्त में भावनाओं का (स्वभाव का) पोषण होता है। जैसे पात्र के गरम होने पर उसमें रखा हुआ जल भी गरम हो जाता है, ठीक वैसे ही चित्त की वृत्तियों पर धातु-रस का संस्कार होता है। अत: जब सात्त्विक अन्न ग्रहण किया जाय, तभी सत्त्वगुण की वृद्धि होती है तथा अन्य प्रकार के अन्नों का सेवन करने से चित्तवृत्ति राजस अथवा तामस होती है। अब तुम ध्यानपूर्वक सुनो कि सात्त्विक आहार कौन-से हैं तथा राजस-तामस आहारों के लक्षण क्या हैं।[1]

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टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (105-119)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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