श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-16
दैवासुर सम्पद्वि भाग योग
जो आत्मघाती इन सब चीजों पर ध्यान नहीं देता और काम इत्यादि दोषों में ही अपना सिर डालता है जो उन श्रेष्ठ वेदों का अपमान करता है, जो सब पर समभाव से कृपादृष्टि रखने वाले हैं तथा सबका हिताहित स्पष्ट रूप से दिखलाने वाले दीपक की ही भाँति हैं, जिसे विधि और निषेध का ध्यान नहीं रहता, जो आत्मप्राप्ति की कामना नहीं करता, जो एकमात्र इन्द्रियों का ही लालन-पालन करता रहता है, जो निरन्तर काम इत्यादि के ही चक्कर में पड़ा रहता है और उनकी बात कभी नहीं टालता तथा जो स्वेच्छाचार के वन में अन्धा होकर घुसता है, उसे मुक्तिरूपी सरिता का जल कभी चखने तक को नहीं मिलता। सारा श्रम दूर करने वाली यह मुक्तिरूपी नदी उसे कभी स्वप्न में भी दृष्टिगत नहीं होती। इस प्रकार के मनुष्य के पारलौकिक हित की तो बात ही मुँह से नहीं निकालनी चाहिये, पर उसे लौकिक भोग भी सुलभ नहीं होते। जैसे कोई ब्राह्मण मत्स्य पकड़ने के लोभ से पानी में गोता लगाता है, पर वहाँ भी उसके हाथ कुछ नहीं लगता, और-तो-और उसके प्राणों पर संकट के बादल भी मँड़राने लगते हैं, वैसे ही जो मनुष्य सिर्फ विषय-भोग के लोभ से परलोक-साधन का प्रयत्न करता है, उस प्रयत्न के दौरान ही उस पर मृत्यु अपना कब्जा जमा लेती है तथा उसे खींचकर दूसरी ओर ले जाती है। परिणामतः उसे न तो स्वर्ग-भोग ही मिलता है और न तो सांसारिक विषयभोग ही। फिर भला उसे मोक्ष प्राप्त होने की बात ही कहाँ! अत: जो व्यक्ति विषयभोग पाने की चेष्टा करता है, वह इस लोक के विषयभोग से भी और स्वर्ग-सुखोपभोग से भी वंचित हो जाता है तथा उसका उद्धार कभी नहीं होता।[1] |
टीका टिप्पडी और संदर्भ
- ↑ (445-454)
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