ज्ञानेश्वरी पृ. 645

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-16
दैवासुर सम्पद्वि भाग योग


तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि ॥24॥
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे दैवासुरसम्पद्विभागयोगो नाम षोडशोऽध्यायः।।16।।

इसलिये हे तात! जिनको स्वयं पर दया हो, उन्हें वेद-वचनों की कभी अवज्ञा नहीं करनी चाहिये। जैसे अपने पति के मनोऽनुकूल आचरण करने वाली पतिपरायणा स्त्री स्वतः आत्मकल्याण का साधन करती है अथवा जैसे कोई शिष्य अपने गुरु के वचनों की ओर ध्यान रखकर आत्मस्वरूप में स्थान प्राप्त करता है अथवा जैसे अँधेरे में रखा हुआ अपना धन पुनः प्राप्त करने की कामना वाला व्यक्ति प्रकाश करने के उद्देश्य से बहुत तत्परतापूर्वक दीपक लाकर सामने रखता है, वैसे ही जो लोग पुरुषार्थ चतुष्टय से सम्पन्न होना चाहते हों, हे पार्थ! उन्हें श्रुतियों और स्मृतियों को सिर पर धारण करना चाहिये। शास्त्रों ने जिसे त्याज्य बतलाया है, फिर वह चाहे विशाल साम्राज्य ही क्यों न हो पर फिर भी उसे तृणतव् तुच्छ समझकर फेंक देना चाहिये और शास्त्र जिसे ग्राह्य बतलाते हों, वह चाहे विषतुल्य ही क्यों न हो, पर फिर भी उसे विरुद्ध नहीं समझना चाहिये। हे सुभट (अर्जुन)! यदि ऐसी अचल निष्ठा वेद-शास्त्रों के प्रति हो तो क्या कभी अनिष्ट की प्राप्ति हो सकती है? अहित से बचाने वाली और कल्याण का साधन करके उसकी वृद्धि करने वाली संसार में श्रुतियों से बढ़कर दूसरी कोई माता नहीं है। अत: जीव को ब्रह्मस्वरूप में पहुँचाने वाली इस श्रुतिरूपी माता का परित्याग कभी किसी को नहीं करना चाहिये; हे अर्जुन! तुम विशेषरूप से सदा इसी की सेवा किया करो; क्योंकि तुमने इस संसार में धर्मनिष्ठा और सत्-शास्त्रों की सहायता से अपना जीवन धन्य करने के उद्देश्य से ही जन्म लिया है और तुम आप-से-आप धर्म के छोटे भाई हो। इसलिये तुम्हें वेदविरुद्ध आचरण नहीं करना चाहिये। कार्याकार्य का निर्णय शास्त्रों के आधार पर ही करना चाहिये। जो अकृत्य और बुरी बातें शास्त्रों में कही गयी हों, उन्हें एकदम त्याग देना चाहिये और तब जो वास्तविक कर्तव्य निश्चित हो, उसका अपनी पूरी सामर्थ्य से और शुद्ध हृदय से अच्छी तरह पालन करके उसकी सिद्धि करनी चाहिये। हे बुद्धिमान् अर्जुन! सम्पूर्ण विश्व को आधार प्रदान करने वाली मुद्रा अर्थात् प्रामाणिकता की मोहर आज तुम्हारे हाथ में ही है और लोकसंग्रह की शक्ति भी तुममें निश्चितरूप से विद्यमान है।”

इस प्रकार भगवान् ने अर्जुन को आसुरी सम्पत्ति के लक्षण बतलाकर उनसे सूचित होने वाला निर्णय भी स्पष्ट रूप से बतला दिया। तदनन्तर वह पाण्डुनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण से अन्तःकरण के सद्भाव के बारे में जो प्रश्न करेगा, वह भी आप लोग चैतन्य के श्रवणेन्द्रियों से श्रवण करें। संजय ने व्यासदेव की कृपा से महाराज धृतराष्ट्र को वह प्रकरण सुनाया था। उसी प्रकार मैं भी श्रीनिवृत्तिनाथ की कृपा से वह प्रकरण आप लोगों से निवेदन करूँगा। यदि आप सन्तजन मुझ पर अपनी कृपादृष्टि की वृष्टि करेंगे तो मैं भी आप ही लोगों के सदृश बड़ा बन जाऊँगा। अत: आप लोगों की मुझ पर इतनी ही अनुकम्पा होनी चाहिये कि आप लोगों का ध्यान मेरी तरफ रहे। फिर मैं ज्ञानदेव सचमुच धन्य तथा समर्थ हो जाऊँगा।

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टीका टिप्पडी और संदर्भ

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श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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