श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-15
पुरुषोत्तम योग
इस प्रकार इस अध्याय के आरम्भ से लेकर यहाँ तक समस्त शास्त्रसमस्त महत्तत्त्व प्रतिपादित किया गया है, जो कमल-सौरभ की भाँति उपनिषदों को सुगन्धित करता है तथा जो शब्द-ब्रह्म के (मथने से) उपलब्ध होने वाला अर्थ-सर्वस्व है, वह श्रीव्यास जी की प्रज्ञाबल से निकाला हुआ सार मैंने आप लोगों की सेवा में प्रस्तुत किया है। यह ज्ञानामृत की गंगा है अथवा आनन्दरूपी चन्द्रमा की सत्रहवीं कला है अथवा विचाररूपी क्षीरसिन्धु से प्रकट हुई नव लक्ष्मी ही है। यही कारण है कि वह अपने पद (शब्द समूह), वर्ण (अक्षर) तथा अर्थरूपी जीवन-प्राण से मेरे अलावा और कुछ जानती ही नहीं। इसके समक्ष क्षर और अक्षर- ये दोनों ही करबद्ध उपस्थित रहते हैं, पर यह भूलकर भी उनकी ओर नहीं देखती तथा उसने अपना सब कुछ मुझ पुरुषोत्तम को ही समर्पित कर दिया है। इसीलिये इस जगत् में यह गीता मेरी आत्मा की एकनिष्ठ पतिव्रता है और उसी का श्रवण आज तुमने किया है। वास्तव में यह शास्त्र वर्णनातीत है, पर इस संसार पर विजय-पताका फैलाने वाला यही एक शस्त्र है। जिन मन्त्राक्षरों से आत्मा का स्फुरण होता है, वे इसी गीता के हैं। पर हे अर्जुन! आज जो मैंने तुमको इस शास्त्र के सम्बन्ध में बतलाया है, सो यह कृत्य कैसा हुआ है? आज मैं मानो अपने गुप्त धन का भण्डार ही तुम्हारे सामने खोल कर रख दिया हूँ। चैतन्यरूपी शंकर के मस्तक पर जो गीतारूपी गंगा मैंने छिपा रखी थी, हे धनंजय! उसे आस्थापूर्वक बाहर निकालने वाले तुम आज दूसरे गौतम हुए हो। |
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