ज्ञानेश्वरी पृ. 602

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-15
पुरुषोत्तम योग

खूब अच्छी तरह से मेरा शुद्ध स्वरूप दिखलाने के लिये, हे पार्थ! आज तुम मेरे सम्मुख रखे हुए दर्पण की ही भाँति हो रहे हो अथवा जैसे चन्द्रमा और तारागणों से भरे हुए आकाश को सागर अपने जल में प्रतिबिम्ब रूप से ले आता है, ठीक वैसे ही आज तुमसे गीतासहित मुझे भी अपने अन्तःकरण में प्रतिबिम्बित कर लिया है। हे सुभट (अर्जुन)! तुममें जो त्रिगुणात्मक मल था, वह अब मिट गया है और तुम गीतासहित मेरे निवास स्थान बन गये हो। परन्तु इसका मैं क्या वर्णन करूँ! जो मेरी इस ज्ञानरूपी लता को जानता है, उसे सारे मोहों से छुटकारा मिल जाता है। हे पाण्डुसुत! जैसे अमृतरूपी नदी का सेवन करने से वह सारे रोगों का नाश करके अमरत्व प्रदान करती है तथा व्यक्ति को सर्वथा सुखी करती है, ठीक वैसे ही इस गीता का सम्यक् ज्ञान हो जाने पर यदि मोह का क्षय हो जाता है तो इसमें आश्चर्य ही क्या है?

निःसन्देह यह गीता जो आत्मज्ञान करा देती है, उससे व्यक्ति को आत्म स्थिति भी प्राप्त होती है; और जब व्यक्ति को यह आत्मज्ञान प्राप्त हो जाता है, तब उसके कर्म भी यह समझ कर सानन्दलय को प्राप्त हो जाते हैं कि अब इस ज्ञान के कारण हमारी आयुष्य भी पूर्ण हो गयी। जैसे खोई हुई वस्तु के मिल जाने पर उसको ढूँढ़ने की क्रिया भी समाप्त हो जाती है, ठीक वैसे ही जिस समय कर्म-मन्दिर पर ज्ञान कलश चढ़ता है, उस समय कर्म भी स्वतः बन्द हो जाते हैं। यही कारण है कि ज्ञानी व्यक्ति के करने का अन्य कोई कर्म अवशिष्ट नहीं रह जाता है।” बस यही सब बातें अनाथों के सुहृद् भगवान् श्रीकृष्ण ने कहीं। भगवान् के इस वचनरूपी अमृत से अर्जुन का अन्तः करण लबालब भर गया और वह अमृत उस अन्तःकरण से बाहर निकल कर प्रवाहित होने लगा और वही अमृत श्रीव्यास देव की अनुकम्पा से संजय के हाथ लगा था। फिर वही अमृत संजय ने महाराज धृतराष्ट्र के सामने परोसा था और उसी अमृत की कृपा से देहावसान काल में धृतराष्ट्र का परिणाम अच्छा हुआ था। यदि सामान्यतः गीता के श्रवण के समय कभी यह जान पड़े कि कोई श्रोता अनधिकारी अथवा अपात्र है, तो भी अन्ततः उसके लिये भी यह गीता उपयोगी ही होती है।

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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