श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-15
पुरुषोत्तम योग
हे धनंजय! जो अपने-आपको स्वयं ही प्रकाशित करता है और कहाँ तक कहा जाय, जिसमें अन्य कोई चीज है ही नहीं, वही मैं उपाधिरहित क्षर तथा अक्षर से श्रेष्ठ एकमात्र मैं ही हूँ। यही कारण है कि वेद तथा लोग मुझे पुरुषोत्तम नाम से पुकराते हैं।[1]
पर इन सब बातों को जाने दो। हे धनंजय! ज्ञानरूपी सूर्य का उदय हो चुकने के कारण जिन लोगों ने यह अच्छी तरह समझ लिया है कि मैं पुरुषोत्तम हूँ, ज्ञान की जागर्ति होने पर जिन्हें यह दृश्य जगत् स्वप्नवत् मिथ्या प्रतीत होने लगा है अथवा जो मेरा सत्यज्ञान हो जाने के कारण मिथ्या प्रपंचों के चक्कर से ठीक वैसे ही दूर रहते हैं, जैसे माला हाथ में ले लेने पर उसके कारण होने वाला सर्पाभास तत्क्षण दूर हो जाता है, जिन लोगों ने मेरे वास्तविक स्वरूप को जानकर भेदभाव का ठीक वैसे ही त्याग कर दिया है, जैसे वह व्यक्ति अलंकारत्व को मिथ्या कहता है, जो यह भलीभाँति जानता है कि अलंकार स्वर्ण का ही है, जो अपने-आपको सर्वव्यापक, अद्वितीय और स्वयं सिद्ध सच्चिदानन्द समझता है, जो स्वयं को मुझसे अलग नहीं मानता तथा जो मेरे आत्मस्वरूप को अच्छी तरह पहचानता है, उसी के बारे में यह समझना चाहिये कि उसने सब कुछ जान लिया है। परन्तु उसके विषय में यह कहना भी यथेष्ट नहीं है; क्योंकि शब्दों का विषय होने वाला जो द्वैत है, वह उसमें अवशिष्ट ही नहीं रह जाता। अत: हे अर्जुन! इस प्रकार के ही व्यक्ति में मेरी भक्ति करने की योग्यता होती है। देखो, गगन के आलिंगन के लिये गगन ही उपयुक्त होता है। जैसे क्षीरसिन्धु की पहुनाई एकमात्र क्षीरसिन्धु ही कर सकता है, अमृत ही अमृत में समाकर एकरस हो सकता है अथवा विशुद्ध स्वर्ण जब विशुद्ध स्वर्ण में मिलाया जाता है, तब उन दोनों का मिश्रण भी विशुद्ध स्वर्ण ही होता है, ठीक वैसे ही जो मद्रूप होता है, वही मेरी भक्ति कर सकता है। देखो, यदि नदी सागर में मिलकर एकरूप न हो सकती, तो वह भला उसमें कैसे मिल सकती? इसी प्रकार जो मद्रूप होकर ऐक्य नहीं प्राप्त कर सकता तो फिर वह मेरे साथ भक्ति का सम्बन्ध कैसे स्थापित कर सकता है? तरंग जैसे सिन्धु में समाकर तल्लीन हो जाती है, वैसे ही हे पार्थ! जो अनन्यभाव से दत्त-चित्त होकर मेरा भजन करता है, उसकी भक्ति का मेरे साथ जो सम्बन्ध है, उस सम्बन्ध की उपमा प्रभा और सूर्य से ही अच्छी तरह दी जा सकती है।[2]
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टीका टिप्पडी और संदर्भ
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