ज्ञानेश्वरी पृ. 599

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

Prev.png

अध्याय-15
पुरुषोत्तम योग

यही कारण है कि वे क्षर और अक्षर- इन दोनों पुरुषों को निम्न श्रेणी का मानकर और इन दोनों से ऊपर रहने वाले इस पुरुष को परमात्म रूप कहते हैं। हे अर्जुन! यह बात तुम अच्छी तरह से जान लो कि परमात्मा शब्द से पुरुषोत्तम का ही बोध कराया जाता है। वस्तुतः जो ऐसी चीज है, जिसमें न बोलना ही बोलने के सदृश होता है, कुछ न जानना ही जिसमें ज्ञान होता है और कुछ न होना ही जिसमें होना होता है, ‘सोऽहम्’ भाव का भी जहाँ अस्त हो जाता है, जिसमें कथन करने वाला कथित के संग और ज्ञाता ज्ञेय के संग मिलकर एक रूप हो जाता है, जिसमें द्रष्टा और दृश्य - इन दोनों का विलय हो जाता है, वही वह उत्तम पुरुष है।

बिम्ब और प्रतिबिम्ब के मध्य में स्थित प्रभा यदि हमारी आँखों से ओझल हो जाय तो भी हम यह नहीं कह सकते कि वह प्रभा है ही नहीं अथवा समाप्त हो गयी है, यदि घ्राणेन्द्रिय तथा पुष्प में विद्यमान सुगन्ध हमें दृष्टिगत न हो तो भी हमें यह नहीं कहना चाहिये कि वह सुगन्ध एकदम है ही नहीं। ठीक इसी प्रकार यह कथन भी प्रामाणिक नहीं है कि द्रष्टा और दृश्य का लोप हो जाने पर फिर कुछ भी अवशिष्ट नहीं रह जाता; और इसीलिये ऐसी स्थिति में जो कुछ अनुभव में आता है, उसी को उस उत्तम पुरुष का स्वरूप जानना चाहिये। जो प्रकाशित होने के योग्य नहीं है, बल्कि प्रकाश है, जो नियमित नहीं किया जा सकता, बल्कि नियन्ता है, जो स्वतः ही अवकाश बनकर फिर भी उसी अवकाश को व्याप्त करता है, जो नाद का भी नाद, स्वाद का भी स्वाद तथा आनन्द का भी आनन्द होता है, जो समस्त पुरुषों में उत्तम, पूर्णता की भी पूर्णता और विश्रान्ति की भी विश्रान्ति है, जो सुख का भी सुख, तेज का भी तेज तथा शून्य का भी शून्य है, जो विकास को भी पूर्ण करके अवशिष्ट रहता है, जो ग्रास का भी ग्रसन कर लेता है, जो बहुत-से भी बहुत अधिक है तथा जो बिना अपना स्वरूप त्यागे और बिना विश्व में मिले ही ठीक वैसे ही विश्वाभास का आधार होता है, जैसे सीपी रजत न होने पर भी अज्ञानी जनों को रजत का प्रत्यय करा देती है, स्वर्ण बिना अपना स्वर्णपन छिपाये ही अलंकारों का रूप धारण करता है अथवा जो इस भासमान होने वाले जगत् का ठीक वैसे ही आधार बना है, जैसे जल और उसमें उत्पन्न होने वाली तरंगें एक होती हैं तथा उनमें कोई भेद नहीं होता, वह वही उत्तम पुरुष है। जैसे स्वयं चन्द्रमा का बिम्ब ही जल में पड़ने वाले अपने प्रतिबिम्ब के संकोच तथा विकास का प्रमुख कारण होता है, वैसे ही यह भी विश्व के रूप में कुछ-कुछ प्रकट होता है। परन्तु हाँ, जिस समय विश्व का लोप हो जाता है, उस समय स्वयं इसका लोप नहीं होता। जैसे दिन और रात के कारण सूर्य में कभी कहीं द्वैधीभाव उत्पन्न नहीं होता, जिसका किसी जगह पर अन्य किसी के साथ व्यय नहीं हो सकता, जिसके साथ तुलना करने के लिये स्वयं उसके अलावा अन्य कोई नहीं है।[1]

Next.png

टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (525--555)

संबंधित लेख

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः