ज्ञानेश्वरी पृ. 586

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-15
पुरुषोत्तम योग

अब चाहे ज्ञान की सीमा ही क्यों न लाँघ जाय, परमाणु का भी पता लगाने वाली सूक्ष्म से भी सूक्ष्म बुद्धि क्यों न मिल जाय तथा समस्त शास्त्रों में दक्षता क्यों न हासिल की जाय, परन्तु जब तक इस प्रकार की विद्वत्ता के जोड़ का वैराग्य मन में न उत्पन्न हो, तब तक मेरे सर्वात्मकस्वरूप की उपलब्धि कभी नहीं हो सकती। हे धनुर्धर! व्यक्ति की यदि ऐसी अवस्था हो कि वह अपने मुख से ज्ञान की बहुत-सी बातें बघारता हो, पर उसके चित्त में विषयों का दृढ़ और स्थायी निवास हो तो यह बात निर्विवाद सत्य है कि मेरे स्वरूप की कभी प्राप्ति नहीं हो सकती। भला स्वप्न में बड़बड़ाने वाले व्यक्ति के द्वारा रचे हुए ग्रन्थ से क्या कभी व्यवहार की समस्याओं का निराकरण हो सकता है? अथवा क्या कभी किसी पुस्तक को हाथ से स्पर्श करने मात्र से ही उसे पढ़ने का फल मिल सकता है? अथवा क्या नेत्र बन्द करके और सिर्फ घ्राणेन्द्रिय के साथ मौक्तिक का सम्पर्क कराकर उसका मूल्यांकन किया जा सकता है? ठीक इसी प्रकार यदि चित्त अहंकार से परिपूर्ण हो और व्यक्ति सारे शास्त्रों की चर्चा करता हो, तो करोड़ों बार जन्म धारण करने पर भी कभी मेरी प्राप्ति नहीं हो सकती। मैं जो एक हूँ और जीवमात्र में व्याप्त रहता हूँ, उस अपनी व्याप्ति का अब मैं स्पष्ट रूप से निरूपण करता हूँ; ध्यानपूर्वक सुनो।[1]

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टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (373-397)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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