ज्ञानेश्वरी पृ. 585

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-15
पुरुषोत्तम योग

जिस जगह पर आकाश को रहना चाहिये, वह वहीं पर सदा रहता है तथा नीचे दृष्टिगत होने वाला उसका यह आभास सिर्फ मिथ्या जान पड़ता है। ठीक इसी प्रकार आत्मा यद्यपि इस देह के साथ संलग्न दृष्टिगत होती है, पर फिर भी उसका इस प्रकार दृष्टिगोचर होना एकमात्र आभास है। जो हलचल प्रवाह में दिखायी देती है, वह केवल प्रवाह में ही होती है; यद्यपि उस प्रवाह में चन्द्रमा की चन्द्रिका हिलती-डुलती दिखायी देती है; तो भी वास्तव में वह चन्द्रिका स्वयं चन्द्रमा में ही स्थित रहती है अथवा जल का गड्ढा कभी तो जल से लबालब भर जाता है और कभी सूख जाता है। जिस समय वह जल से भरा रहता है, उस समय उसमें सूर्य का प्रतिबिम्ब दिखायी देता है और जिस समय वह सूख जाता है, उस समय उसमें प्रतिबिम्ब नहीं दिखायी देता; पर सूर्य सदा ज्यों-का-त्यों रहता है। ठीक इसी प्रकार विवेकशील व्यक्ति यह देखते और समझते हैं कि देह चाहे जन्मग्रहण करे और चाहे मृत्यु का वरण करे, पर मैं सदा ज्यों-का-त्यों और अविकृत रहता हूँ। घट अथवा मठ का चाहे निर्माण हो और चाहे विनष्ट हो जाय, पर आकाश सदा ज्यों-का-त्यों ही बना रहता है। ठीक इसी प्रकार आत्मसत्ता भी सदा अखण्ड और अव्यय रहती है और एकमात्र अज्ञान के द्वारा कल्पित देह ही जन्म धारण करता एवं मरता है और विवेकीजन ही इस बात का सम्यक् ज्ञान रखते हैं। अपने निर्मल आत्मज्ञान के कारण ज्ञानीजन यह बात भली-भाँति जानते हैं कि चैतन्य न तो किसी में भरा ही जाता है और न किसी में से निकलता ही है तथा न वह कोई कर्म करता ही है और न कराता ही है।

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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