श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-15
पुरुषोत्तम योग
जिस जगह पर आकाश को रहना चाहिये, वह वहीं पर सदा रहता है तथा नीचे दृष्टिगत होने वाला उसका यह आभास सिर्फ मिथ्या जान पड़ता है। ठीक इसी प्रकार आत्मा यद्यपि इस देह के साथ संलग्न दृष्टिगत होती है, पर फिर भी उसका इस प्रकार दृष्टिगोचर होना एकमात्र आभास है। जो हलचल प्रवाह में दिखायी देती है, वह केवल प्रवाह में ही होती है; यद्यपि उस प्रवाह में चन्द्रमा की चन्द्रिका हिलती-डुलती दिखायी देती है; तो भी वास्तव में वह चन्द्रिका स्वयं चन्द्रमा में ही स्थित रहती है अथवा जल का गड्ढा कभी तो जल से लबालब भर जाता है और कभी सूख जाता है। जिस समय वह जल से भरा रहता है, उस समय उसमें सूर्य का प्रतिबिम्ब दिखायी देता है और जिस समय वह सूख जाता है, उस समय उसमें प्रतिबिम्ब नहीं दिखायी देता; पर सूर्य सदा ज्यों-का-त्यों रहता है। ठीक इसी प्रकार विवेकशील व्यक्ति यह देखते और समझते हैं कि देह चाहे जन्मग्रहण करे और चाहे मृत्यु का वरण करे, पर मैं सदा ज्यों-का-त्यों और अविकृत रहता हूँ। घट अथवा मठ का चाहे निर्माण हो और चाहे विनष्ट हो जाय, पर आकाश सदा ज्यों-का-त्यों ही बना रहता है। ठीक इसी प्रकार आत्मसत्ता भी सदा अखण्ड और अव्यय रहती है और एकमात्र अज्ञान के द्वारा कल्पित देह ही जन्म धारण करता एवं मरता है और विवेकीजन ही इस बात का सम्यक् ज्ञान रखते हैं। अपने निर्मल आत्मज्ञान के कारण ज्ञानीजन यह बात भली-भाँति जानते हैं कि चैतन्य न तो किसी में भरा ही जाता है और न किसी में से निकलता ही है तथा न वह कोई कर्म करता ही है और न कराता ही है। |
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |