ज्ञानेश्वरी पृ. 587

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-15
पुरुषोत्तम योग


यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम्।
यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम्।।12।।

जिस तेज से सूर्यसहित यह समस्त विश्व प्रकाशित होता है, वह सारा-का-सारा तेज मेरा ही है। हे पाण्डुनन्दन! जिस समय सूर्य जल का अंश शोषित कर अस्ताचल की ओर चला जाता है, उस समय शुष्क जगत् को जो चन्द्रमा आर्द्रता पहुँचाता है, उस चन्द्रमा की चन्द्रिकाएँ भी मेरा ही तेज है और अग्नि का जो तेज जलाने तथा भोजन पकाने इत्यादि का कार्य करता है, वह भी मेरा ही तेज है।[1]


गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा।
पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः।।13।।

मैं ही इस भूतल में पैठ करके उसे सँभाले रहता हूँ; यही कारण है कि पृथ्वी मिट्टी के ढेले के रूप में होने पर भी महासिन्धु के जल में नहीं गलती। पृथ्वी अपनी जिस सामर्थ्य के कारण अपार जनसमूहों का बोझ वहन करती है, वह सामर्थ्य भी मैं ही उसे प्रदान करता हूँ। हे पाण्डुसुत! गगनमण्डल में चन्द्रमा के रूप में मैं ही अमृत के चलते-फिरते सरोवर के सदृश हुआ हूँ। गगनमण्डल से मेरी जो चन्द्र रश्मियाँ अवनितल पर आती हैं, उन्हें मैं ही अमृत से लबालब भरकर सम्पूर्ण औषधियों का पोषण करता हूँ। इस प्रकार मैं ही धान्य इत्यादि का सुकाल करके अन्न के द्वारा जीवमात्र का भरण-पोषण करता हूँ। यद्यपि इस प्रकार अन्न की तो यथेष्ट प्रचुरता हो जाती है, पर उसको पचाकर जीवमात्र को संतृप्त करने वाली जठराग्नि की जो शक्ति है, वह कहाँ से आती है?[2]

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टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (398-400)
  2. (401-406)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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