श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-15
पुरुषोत्तम योग
जिस तेज से सूर्यसहित यह समस्त विश्व प्रकाशित होता है, वह सारा-का-सारा तेज मेरा ही है। हे पाण्डुनन्दन! जिस समय सूर्य जल का अंश शोषित कर अस्ताचल की ओर चला जाता है, उस समय शुष्क जगत् को जो चन्द्रमा आर्द्रता पहुँचाता है, उस चन्द्रमा की चन्द्रिकाएँ भी मेरा ही तेज है और अग्नि का जो तेज जलाने तथा भोजन पकाने इत्यादि का कार्य करता है, वह भी मेरा ही तेज है।[1]
मैं ही इस भूतल में पैठ करके उसे सँभाले रहता हूँ; यही कारण है कि पृथ्वी मिट्टी के ढेले के रूप में होने पर भी महासिन्धु के जल में नहीं गलती। पृथ्वी अपनी जिस सामर्थ्य के कारण अपार जनसमूहों का बोझ वहन करती है, वह सामर्थ्य भी मैं ही उसे प्रदान करता हूँ। हे पाण्डुसुत! गगनमण्डल में चन्द्रमा के रूप में मैं ही अमृत के चलते-फिरते सरोवर के सदृश हुआ हूँ। गगनमण्डल से मेरी जो चन्द्र रश्मियाँ अवनितल पर आती हैं, उन्हें मैं ही अमृत से लबालब भरकर सम्पूर्ण औषधियों का पोषण करता हूँ। इस प्रकार मैं ही धान्य इत्यादि का सुकाल करके अन्न के द्वारा जीवमात्र का भरण-पोषण करता हूँ। यद्यपि इस प्रकार अन्न की तो यथेष्ट प्रचुरता हो जाती है, पर उसको पचाकर जीवमात्र को संतृप्त करने वाली जठराग्नि की जो शक्ति है, वह कहाँ से आती है?[2] |
टीका टिप्पडी और संदर्भ
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