श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-13
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग
उसे तुम ज्ञानरूपी ऐश्वर्य का खुला हुआ भण्डार ही समझो। जैसे ब्रह्मराक्षस अपने निवास स्थान को, योद्धा अपने शस्त्र-अस्त्र को अथवा लोभी अपने धन को अपने नेत्रों से ओझल नहीं होने देता अथवा जैसे माता अपने इकलौते पुत्र को सदा अपने कलेजे से लगाये रहती है, अथवा जैसे मधुमक्खी को सदा मधु का लोभ बना रहता है, वैसे ही हे अर्जुन! जो अपने अन्तःकरण का अनवरत खूब जी लगाकर यत्न करता है और उसको इन्द्रियों के द्वार पर पैर भी नहीं रखने देता, जो इस परिकल्पना से सदा भयभीत रहता है कि यदि मेरे इस बालक का नाम भी इस कामरूपी हउवे के श्रवणेन्द्रिय में प्रवेश कर जायगा अथवा आशारूपी डाकिनी की नजर इसे लग जायगी तो इसकी जान ही निकल जायगी अथवा जैसे अपनी व्यभिचारिणी स्त्री को जबरदस्त पति सदा अपने अंकुश में रखता है, वैसे ही जो अपनी प्रवृत्तियों को अपने अधीन रखता है, जो उस समय भी अपनी इन्द्रियों को अच्छी तरह निग्रह में रखता है, जिस समय सजीव देह अत्यन्त कृश हो जाता है और प्राण जाने की नौबत आ जाती है, जो अपने मन के प्रमुख द्वार पर अथवा वृत्ति के पहरे पर अपने शरीररूपी दुर्ग में शमदम को निरन्तर पहरेदारों की भाँति नियुक्त और जाग्रत रखता है, जो मूलाधार, मणिपूर या नाभिस्थान और विशुद्ध या कण्ठ स्थान के तीन चक्रों में वज्र, उड्डीयान और जालन्धर नामक तीनों बन्धों की गस्त बैठाकर अपने चित्त को इडा और पिंगला- इन दोनों नाड़ियों की सन्धि में प्रविष्ठ करता है, समाधि की शय्या पर अपने ध्यान को अच्छी तरह सुलाये रखता है और जिसका चित्त चैतन्य के साथ एकाकार होकर सदा उसी में रमण करता रहता है, उसके बारे में तुम यह अच्छी तरह जान लो कि उसने अपने अन्तःकरण का पूर्णतया निग्रह कर लिया है। अन्तःकरण का इस प्रकार निग्रह मानो ज्ञान की विजय ही है। जिस व्यक्ति की आज्ञा उसका अन्तःकरण सम्मानपूर्वक शिरोधार्य करता है, उस व्यक्ति को मूर्तिमान् ज्ञान ही जानना चाहिए।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (184-511)
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