ज्ञानेश्वरी पृ. 457

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-13
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग


इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहंकार एव च ।
जन्ममृत्युजराव्याधिदु:खदोषानुदर्शनम् ॥8॥

जिस व्यक्ति के मन में विषयों के प्रति पूर्ण विरक्ति बनी रहती है, वही ज्ञानी होता है। जैसे वमन किये हुए अन्न को देखकर किसी की जिह्वा से लार नहीं टपकती अथवा जैसे किसी मृतक को गले लगाने के लिये कोई उद्यत नहीं होता; विष को जैसे कोई नहीं खाता अथवा जलते हुए घर में कोई प्रवेश नहीं करता, व्याघ्र की गुफा में कोई अपना डेरा नहीं डालता, अथवा गले हुए लोहे के खौलते हुए रस में कोई नहीं कूदता, तथा अजगर को तकिया बनाकर कोई उस पर नहीं सोता, वैसे ही विषय की चर्चाएँ जिसे रुचिकर नहीं लगतीं और जो किसी विषय का ग्रहण इन्द्रियों के द्वारा नहीं करता, जिसका मन विषयों की ओर से सदा उदासीन रहता है, जिसका देह अत्यन्त कृश रहता है और शम-दम के प्रति जिसका मन उत्साह से भरा रहता है, हे पाण्डव! जिसके समस्त तपोव्रत एक जगह इकट्ठे रहते हैं और आबादी में निवास करना जिसे युगान्त की भाँति दुःखद जान पड़ता है, जिसे योगाभ्यास की अधिक ललक रहती है, जो सुनसान स्थान की ओर दौड़ता हुआ जाता है और जिसे मानव-समाज का नाम भी रुचिकर नहीं लगता, तो ऐहिक विषय-भोगों को उतना ही त्याज्य समझता है, जितना बाणों की शय्या पर सोना अथवा पीब की कीचड़ में लोटना, जो स्वर्ग-सुखों का वर्णन सुनकर उन सुखों को कुत्तों के सड़े हुए मांस के सदृश समझता है, उसका यह वैराग्य ही उसके लिये आत्म लाभ का वैभव होता है। जीव में ब्रह्मानन्द का सुख भोगने की पात्रता इसी प्रकार के वैराग्य के द्वारा आती है। जिसमें ऐहिक और पारलौकिक - दोनों प्रकार के सुखों के उपभोग के सम्बन्ध में पूर्ण विरक्ति दिखलायी पड़े, उसके बारे में तुम यह जान लो कि उसी में विपुल ज्ञान कुण्डली मारकर बैठा रहता है। जो किसी सकाम मनुष्य की तरह ही इष्टापूर्त के सभी लोकोपयोगी काम करता है, पर उनका कर्तृत्वाभिमान अपने शरीर को स्पर्श भी होने नहीं देता, जो वर्णाश्रम-धर्म के पालन के लिये आवश्यक नित्य और नैमित्तिक कर्म किये बिना नहीं रहता, पर फिर भी जिसमें ऐसी भावना रत्तीभर भी नहीं रहती कि मैंने अमुक कार्य सिद्ध किया है, वही सच्चा ज्ञानी है।

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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