श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-13
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग
जैसे तीव्र गति से दौड़ने वाले मेघों के साथ आकाश नहीं दौड़ता अथवा नक्षत्रों की गतिशीलता के कारण ध्रुव तारा कभी इधर-उधर चक्कर नहीं काटता अथवा रहागीर के कारण रास्ता स्वयं कभी चलने नहीं लगता अथवा हे धनुर्धर! उस रास्ते के अगल-बगल के वृक्ष इत्यादि कभी चलने नहीं लगते, वैसे ही पंचभूतों से निर्मित इस शरीर से क्रिया-कलापों के कारण किसी भूत के बल से भी उसका अन्तरंग कभी प्रभावित नहीं होता-विचलित नहीं होता। जैसे तूफान की तीव्रता के कारण पृथ्वी नहीं हिलती वैसे ही सुख-दुःख इत्यादि के उपद्रव से भी वह स्थिर व्यक्ति कभी विचलित नहीं होता। वह दारिद्र्य-दुःख से कभी संतप्त नहीं होता, भय अथवा शोक से कभी नहीं काँपता और यहाँ तक कि यदि उसके सन्निकट कभी मृत्यु भी आ जाय तो भी वह कभी विचलित नहीं होता। इच्छा और वासना के प्रबल वेग से अथवा विविध रोगों के उपद्रव से उसका सरल चित्त कभी व्यथित नहीं होता। निन्दा, अपमान अथवा दण्ड देने पर यह काम-क्रोधादि के उपद्रवों से भी उसके स्थिर मन का कभी बाल भी बाँका नहीं होता। चाहे आकाश टूट पड़े और चाहे धरती फट जाय, पर उसकी चित्तवृत्ति कभी पीछे नहीं मुड़ती। जैसे फूलों के प्रहार से हाथी कभी टस-से-मस नहीं होता, वैसे ही दुर्वचनों के प्रहार से भी वह कभी व्यथित नहीं होता। जैसे समुद्र मन्थन के समय क्षीरसिन्धु की तरंगों के आगे मन्दरगिरि ने अपना घुटना नहीं टेका था अथवा जैसे दावाग्नि से कभी आकाश नहीं जलता, वैसे ही सुख-दुःख इत्यादि की चाहे कितनी ही तरंगें क्यों न उठें, तो भी उसका मन कभी विचलित नहीं होता। बहुत क्या कहें, वह कल्पान्त के समय भी धैर्य से सम्पन्न होने के कारण ज्यों-का-त्यों बना रहता है। हे अर्जुन! जिस गुण का स्थैर्य के नाम से वर्णन किया गया है, वह यही है। जिस व्यक्ति के बाह्याभ्यन्तर अर्थात् शरीर और मन को इस प्रकार की अटल स्थिरता प्राप्त हो जाती है, |
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |