ज्ञानेश्वरी पृ. 426

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-13
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग

इसकी वास्तविक उपपत्ति अब हम बतलाते हैं, ध्यानपूर्वक सुनो। आकाश में मेघों के समूह कौन भरता है? अन्तरिक्ष में तारागण को कौन सजाता है? गगन की छत किसने और कब बनायी? वायु को निरन्तर बहने का आदेश किसने दिया? रोम की उत्पत्ति किसने की? सिन्धु को किसने भरा? वर्षा की धाराएँ कौन चलाता है? जैसे ये सब चीजें स्वभावतः हुआ करती हैं, वैसे ही यह क्षेत्र भी स्वभावतः उत्पन्न हुआ है। यह किसी की जागीर नहीं है, इसमें जो मेहनत करता है, उसी को उसका फल मिलता है; अन्य को वह फल नहीं मिलता।” जिस समय स्वभाववादी इस सिद्धान्त का प्रतिपादन कर रहे थे, उस समय कुछ और लोग बड़े ताव से बोले- “यदि आपकी बात मानी जाय तो फिर इस क्षेत्र पर केवल काल की ही निरन्तर सत्ता क्यों रहती है? आप यह अच्छी तरह जानते हैं कि इस काल की सत्ता अनिवार्य है पर फिर भी आप अपने मत का मिथ्या अभिमान करते हैं। यह तो मानो क्रुद्ध मृत्यु अथवा सिंह की गुफा है। परन्तु क्या किया जाय? आप-जैसे बड़बड़ाने वाले को यह बात भला कैसे ठीक जान पडे़? काल रूपी सिंह महाकल्प के उस पार पहुँचकर ब्रह्मलोक रूपी हाथी पर भी आक्रमण करने से नहीं चूकता। यह कालरूपी सिंह स्वर्ग के अरण्य में भी प्रविष्ट कर जाता है तथा वहाँ पहुँचकर नये-नये लोकपालों और दिग्गजों के समूह का भी नाश कर डालता है और दूसरे जो जीवरूपी हिरन इत्यादि होते हैं, ये इस कालरूपी सिंह के शरीर की सिर्फ हवा लगने से ही निर्जीव होकर जन्म और मृत्युरूपी गड्ढों में चक्कर काटते रहते हैं। देखो, इसका जबड़ा कितना विस्तृत है। इसके जबड़े में जगत् के आकार का हाथी भी समा जाता है। अत: वास्तविक सिद्धान्त यही है कि इस क्षेत्र पर केवल काल का ही एकाधिपत्य है।”

हे पाण्डुसुत! इस क्षेत्र के विषय में अनेक पक्ष प्रस्तुत हो चुके हैं। नैमिषारण्य में ऋषियों ने इस सम्बन्ध में बहुत कुछ विचार-विमर्श किया है। पुराणों में भी इस विषय की ऊहापोह प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होती है। अनुष्टुप् इत्यादि छन्दों में इसकी बहुत-सी चर्चाएँ की गयी हैं, अब भी बड़े गर्व से उनका आधार ग्रहण किया जाता है। वेदों में ज्ञान की दृष्टि से बृहद् सामसूत्र अत्यधिक पवित्र है, पर उसे भी इसकी थाह नहीं लगी। इसके अलावा और भी अनेक दूरदर्शी महाकवियों ने इस क्षेत्र का पता करने में अपनी बुद्धि खपा दी है। पर आज तक यह बात किसी के समझ में नहीं आयी कि वह क्षेत्र ऐसा है, इतना बड़ा है अथवा वह अमुक का है। अब मैं इस क्षेत्र में समग्र स्वरूप का वर्णन करता हूँ, मन लगाकर सुनो।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (27-71)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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