श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-13
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग
फिर महत्तत्त्व का खलिहान तैयार कर कालरूपी बैलों के द्वारा फसल की दँवायी होती है। प्रायः इसी समय अव्यक्त का सायं काल हो जाता है। इस पर कुछ दूसरे बुद्धिमान आपत्ति करते हुए कहते हैं कि ये सब बातें तो अर्वाचीन हैं। वास्तव में परतत्त्व ब्रह्म ही है। फिर उस ब्रह्म के आगे प्रकृति को कौन पूछता है। तुम्हारा क्षेत्र विषयक विचार सुनन मानो बकवाद सुनना है। शून्य ब्रह्म के शयन कक्ष में सत्यवाली अवस्था की शय्या पर जो आदि-संकल्प सोया हुआ था, वह अकस्मात् जाग उठा। वह अत्यन्त उद्यमी था, इसलिये उसने अपने मनोऽनुकूल यह विश्व का खाका तैयार किया। निर्गुण परब्रह्म का मैदान त्रिभुवन के बराबर बड़ा था। उसे इस आदि-संकल्प की करनी से रंग-रूप प्राप्त हुआ। फिर महाभूतों का जो विशाल बंजर पड़ा हुआ था, उसके जारज, स्वेदज, अण्डज और उद्भिज्ज- ये चार भाग हुए। फिर पंच महाभूतों का जो एक पिण्ड था, उसे तोड़कर पृथक्-पृथक् विभाग करके पांच भौतिक सृष्टि का सृजन किया गया। फिर कर्म और अकर्मरूपी पत्थरों को इकट्ठा करके दोनों ओर से बाँध बाँधे गये और उन्हीं में ऊसर जमीनें तथा जंगल बने। यहाँ आवागमन का काम सदा जारी रखने के लिये उस आदि संकल्प ने जन्म और मृत्यु रूपी दो सुरंगों की रचना इस प्रकार की थी कि ये सृष्टि से चलकर निरालम्ब ब्रह्म तक पहुँच जायँ। फिर इस आदि-संकल्प ने अहंकार के साथ मिलकर बुद्धि की मध्यस्थता से ऐसी व्यवस्था बनायी कि इस क्षेत्र का क्रम निरन्तर चलता रहे। प्रारम्भ में उस निर्गुण निरालम्ब ब्रह्म में ही आदि-संकल्प का अंकुर प्रस्फुटित हुआ था, इसलिये यही सिद्ध होता है कि वही आदि-संकल्प इस प्रपंच का मूल है। जब इस प्रकार संकल्पवादियों ने अपने मतरूपी मोती प्रस्तुत किये, तब सद्यः एक अन्य मतावलम्बी आगे बढ़कर कहने लगे- “आप तो बहुत अच्छे चिकित्सक दिखायी देते हैं महाराज! यदि परब्रह्म के यहाँ आदि-संकल्प के शयन-कक्ष की ही परिकल्पना करनी हो तो फिर संख्यमत की उस परब्रह्म वाली प्रकृति को ही वास्तविक मान लेने में क्या हर्ज है? पर इन सब बातों को जाने देना चाहिये, कारण कि ये बातें ठीक नहीं हैं। तुम लोग इन सबके चक्कर में मत पड़ो। |
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