ज्ञानेश्वरी पृ. 416

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-12
भक्ति योग

ठीक इसी प्रकार जिसका चित्त सदा-सर्वत्र व्यापक रहने पर भी सबसे उदासीन रहता है, जो संसार के व्यथाओं से उसी प्रकार मुक्त हो जाता है, जिस प्रकार कोई पक्षी किसी बहेलिये के हाथ से छूट जाता है और इस प्रकार जो वैराग्य में पूर्ण पारंगत हो जाता है, नित्य आत्मसुख में रँगे रहने के कारण जिसे कोई क्लेश पीड़ित नहीं करता, जिसे लज्जा उसी प्रकार स्पर्श नहीं करती, जिस प्रकार किसी मृतक को। कोई कर्मारम्भ करने के विषय में जिसे अहंकार की कुछ भी बाधा नहीं होती, ईंधन न मिलने के कारण अग्नि में जिस प्रकार की शान्ति स्वतः आ जाती है, मोक्ष पाने के लिये आवश्यक वही सहजशान्ति जिसके हिस्स में आ पड़ी है, हे अर्जुन! जो इस उच्च ताप तक पहुँचने के योग्य ‘सोऽहम्’ भाव से भरा हुआ है और द्वैत के उस पार के तट तक पहुँच चुका है, भक्ति सुख पाने के लिये जो स्वयं ही दो भागों में विभक्त होकर प्रथम भाग में तो स्वयं अपनी सेवकता रखता है, दूसरे में ‘मैं’ यानी ‘देव’ का (ईश्वर का) नाम देता है और जो योगी भक्तिहीनों को भक्ति पर भरोसा दिला देता है, उससे मुझे अत्यधिक प्रीति होती है। किंबहुना, मैं स्वयं ही ऐसे भक्तों का ध्यान करता रहता हूँ। ऐसे भक्तों के भेंट होते ही मुझे सन्तुष्टि मिलती है। इस प्रकार के ही भक्तों के लिये मैं सगुण रूप धारण करता हूँ, उनके लिये मैं इस जगत् में विचरण करता हूँ। वे मुझे इतने अधिक प्रिय होते हैं कि मैं उन पर जीव और प्राण निछावर कर देता हूँ।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (172-189)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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