ज्ञानेश्वरी पृ. 398

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-11
विश्वरूप दर्शन योग


नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया ।
शक्य एवंविधो द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा ॥53॥

हे सुभट! ऐसा कोई साधन नहीं है जिससे इस विश्वरूप के निकट तक पहुँचने का रास्ता मिल सकता हो। छहों शास्त्र और वेद भी इस विषय में मात खा गये हैं। हे धनुर्धर! बड़ी-बड़ी तपश्चर्याओं के द्वारा भी कोई मेरे विश्वरूप के मार्ग पर नहीं पहुँच सकता तथा दान इत्यादि के द्वारा भी इस मार्ग तक पहुँचना अत्यन्त दुरुह है। तुम्हें मेरा इस समय जो ज्ञान प्राप्त हुआ है, वह यज्ञ इत्यादि क्रियाओं से भी किसी को प्राप्त नहीं हो सकता। जिस प्रकार आज मैं तुमको प्राप्त हुआ हूँ, उस प्रकार प्राप्त होने का केवल एक ही मार्ग है। अब तुम यह ध्यानपूर्वक सुनो कि वह मार्ग कौन-सा है। जब चित्त प्रेमपूर्ण भक्ति के वशीभूत होता है, तभी मैं इस प्रकार साध्य होता हूँ।[1]


भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन ।
ज्ञातु द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परंतप ॥54॥

पर यह भी सुन लो कि वह भक्ति कैसी होनी चाहिये। जैसे वृष्टि की छूटी हुई धार जमीन के अलावा अन्यत्र जा ही नहीं सकती अथवा जैसे समस्त जल-सम्पदा अपने साथ लेकर गंगा सागर की ही तलाश करती हुई निरन्तर आगे बढ़ती जाती है और मार्ग में बिना कहीं रुके सीधे सागर में ही जाकर समा जाती है, वैसे ही भक्त के लिये यह परमावश्यक है कि वह अपनी समग्र भावनाओं को इकट्ठा करके प्रेम से सराबोर होकर मेरी ओर बढ़े, और मुझमें समाकर समरस हो जाय। भक्त को जिस ‘मैं’ वाले स्वरूप में समाकर एकाकार हो जाना चाहिये, वह ‘मैं’ वैसा ही हूँ, जैसा क्षीरसिन्धु के तट पर भी क्षीर ही होता है और मध्य में भी क्षीर ही होता है। सच्ची भक्ति वही है, जिसमें व्यक्ति छोटी-सी चींटी को भी मेरा ही स्वरूप समझे और पूरे चराचर को भी मुझसे पृथक् न माने। बस इसके अलावा और किसी प्रकार की भक्ति सच्ची भक्ति नहीं है। जिस समय ऐसी ऐक्य स्थिति प्राप्त होगी, उसी समय मेरे स्वरूप का वास्तविक ज्ञान हो जायगा और ज्यों ही किसी को स्वरूप-ज्ञान होगा, त्यों ही उसे स्वाभाविकरूप से मेरे दर्शन भी हो जायँगे। फिर जैसे ईंधन में अग्नि भड़क उठती है और ईंधन का कहीं नामोनिशान भी नहीं रह जाता, क्योंकि वह अग्नि का ही रूप हो जाता है अथवा जब तक प्रकाश का प्राकट्य नहीं होता, तब तक सम्पूर्ण आकाश अन्धकारमय बना रहता है; परन्तु जिस समय सूर्य का उदय हो जाता है, उस समय समस्त वातावरण प्रकाशमय हो जाता है; वैसे ही मेरे स्वरूप का साक्षात्कार होते ही अहंकार का नाश हो जाता है और उसके नष्ट होते ही द्वैतभाव भी स्वतः समाप्त हो जाता है। तब फिर ‘मैं’ और ‘वह’ दोनों स्वभावतः मिलकर एक ‘मैं’ ही हो जाते हैं। किंबहुना, वह भक्त मुझमें समाकर एकाकार हो जाता है।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (682-685)
  2. (686-695)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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