श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-11
विश्वरूप दर्शन योग
पार्थ के ये वचन सुनकर श्रीकृष्ण ने कहा-“हे पार्थ! तुम यह क्या बकते चले जा रहे हो? तुम्हें इस विश्वरूप के प्रति प्रेम-भाव रखना चाहिये और तब मेरी इस सगुण मूर्ति की निःशंक होकर सेवा करनी चाहिये। हे सुभद्रापति! क्या तुम मेरे द्वारा बतलाये गये सारे उपदेश भूल गये? हे अन्धे अर्जुन! तुम्हारे हाथ तो मेरुगिरि ही लगा था, पर तुमने उसे भूलवश बहुत तुच्छ ही समझ लिया; परन्तु मैंने अभी तुम्हें जिस विश्वरूप के दर्शन कराये हैं, उस विश्वरूप का दर्शन शंकर को भी अपनी पूरी तपस्या लगा देने से भी नहीं हो सकता। हे किरीटी! योग के अष्टांगों के साधन का कष्ट सहने वाले योगियों को भी जिस विश्वरूप के दर्शन नहीं हो सकते, उसके विषय में देवगणों का समय भी इस सोच में व्यतीत हो जाता है कि हमें भी किसी प्रकार उस विश्वरूप की थोड़ी-सी झलक मिल जाय। जैसे आकाशरूपी अंजलि अपने हृदयरूपी मस्तक पर रखकर चातक मेघ की प्रतीक्षा में आकाश की ओर टकटकी लगाये रहता है वैसे ही समस्त देवता जिस विश्वरूप को देखने के लिये आठों पहर चिन्ता करते रहते हैं, पर फिर भी जिस विश्वरूप के दर्शन उन्हें स्वप्न में भी नहीं होते, वही रूप आज तुमने सुखपूर्वक देख लिया है।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (673-681)
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