ज्ञानेश्वरी पृ. 397

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-11
विश्वरूप दर्शन योग


श्रीभगवानुवाच
सुदुर्दर्शमिदं रूपं दुष्टवानसि यन्मम ।
देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाङ्‌क्षिण: ॥52॥

पार्थ के ये वचन सुनकर श्रीकृष्ण ने कहा-“हे पार्थ! तुम यह क्या बकते चले जा रहे हो? तुम्हें इस विश्वरूप के प्रति प्रेम-भाव रखना चाहिये और तब मेरी इस सगुण मूर्ति की निःशंक होकर सेवा करनी चाहिये। हे सुभद्रापति! क्या तुम मेरे द्वारा बतलाये गये सारे उपदेश भूल गये? हे अन्धे अर्जुन! तुम्हारे हाथ तो मेरुगिरि ही लगा था, पर तुमने उसे भूलवश बहुत तुच्छ ही समझ लिया; परन्तु मैंने अभी तुम्हें जिस विश्वरूप के दर्शन कराये हैं, उस विश्वरूप का दर्शन शंकर को भी अपनी पूरी तपस्या लगा देने से भी नहीं हो सकता। हे किरीटी! योग के अष्टांगों के साधन का कष्ट सहने वाले योगियों को भी जिस विश्वरूप के दर्शन नहीं हो सकते, उसके विषय में देवगणों का समय भी इस सोच में व्यतीत हो जाता है कि हमें भी किसी प्रकार उस विश्वरूप की थोड़ी-सी झलक मिल जाय। जैसे आकाशरूपी अंजलि अपने हृदयरूपी मस्तक पर रखकर चातक मेघ की प्रतीक्षा में आकाश की ओर टकटकी लगाये रहता है वैसे ही समस्त देवता जिस विश्वरूप को देखने के लिये आठों पहर चिन्ता करते रहते हैं, पर फिर भी जिस विश्वरूप के दर्शन उन्हें स्वप्न में भी नहीं होते, वही रूप आज तुमने सुखपूर्वक देख लिया है।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (673-681)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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