ज्ञानेश्वरी पृ. 322

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-10
विभूति योग


प्रह्लादश्चास्मि दैत्यानां काल: कलयतामहम् ।
मृगाणां च मृगेन्द्रोऽहं वैनतेयश्च पक्षिणाम् ॥30॥

दैत्यों के कुल में जो प्रह्लाद हैं, वह भी मैं ही हूँ, इसीलिये वह दैत्य स्वभाव के समुदाय में लिप्त नहीं हुआ। श्रीगोपाल ने कहा कि ग्रस कर नष्ट करने वाला महाकाल और वन्य पशुओं में शार्दूल को भी मेरी प्रधान विभूति के अन्तर्गत ही जानना चाहिये। पक्षियों में जो गरुड़ है, वह भी मैं ही हूँ और इसीलिये वह मुझे अपनी पीठ पर बैठा करके उड़ सकता है।[1]


पवन: पवतामस्मि राम: शस्त्रभृतामहम् ।
झषाणां मकरश्चास्मि स्त्रोतसामस्मि जाह्नवी ॥31॥

हे धनुर्धर! इस पृथ्वी के असीम विस्तार में जो बिना एक घड़ी भी लगाये और एक ही उड़ान में सातों समुद्रों की प्रदशिणा कर सकता है, वह सबसे बढ़कर तेज गति से चलने वाला पवन भी मेरी ही प्रधान विभूति है। हे पाण्डुसुत, समस्त शस्त्रधारियों में मुझे श्रीराम समझो, क्योंकि श्रीराम ने संकटापन्न धर्म का पक्ष लेकर त्रेता युग में केवल एक धनुष की ही सहायता से विजय लक्ष्मी को अपनी ओर कर लिया था। तदनन्तर लंका के निकट स्थित सुवेल पर्वत पर खड़े होकर उन्हीं श्रीराम लंकेश्वर रावण की मस्तक-पंक्ति गगन में जयघोष करने वाले भूतों के हाथों पर बलि-स्वरूप रखी थी। उन्हीं श्रीराम ने देवों के सम्मान की सुरक्षा की थी तथा धर्म का जीर्णोद्धार किया था। ये वास्तव में सूर्यवंश के सूर्य ही थे। अत: समस्त शस्त्रधारियों में वह सीतापति श्रीरामचन्द्र मैं ही हूँ। मैं ही पुच्छधारी जलचरों में मकर हूँ। जिस समय गंगा को भगीरथ पृथ्वी पर ला रहे थे, उस समय जह्नु उस गंगा को पी गये थे और फिर उन्होंने अपना जंघा फाड़कर उसमें से गंगा को निकाला था। वही तीनों लोकों में प्रवाहमान जाह्नवी समस्त जल प्रवाहों में मेरी प्रमुख विभूति है। पर हे पाण्डुसुत, यदि मैं इस प्रकार पूरी सृष्टि की एक-एक विभूति का नाम गिनाने लगूँ तो हजारों जन्म बीत जाने पर भी उनमें से आधी की गिनती नहीं की जा सकेगी।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (247-249)
  2. (250-258)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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