श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-10
विभूति योग
चतुर्दश रुद्रों मैं मदनारि शंकर हूँ, इसमें लेशमात्र भी संशय नहीं है। श्रीअनन्त ने कहा कि मैं यक्षों और राक्षसों में शम्भु-सखा कुबेर हूँ, अष्ट वसुओं में अग्नि हूँ और समस्त पर्वतों में अत्यन्त श्रेष्ठ मेरु पर्वत हूँ।[1]
जो इन्द्र का सहायक, सर्वज्ञता का आदि पीठ और पुरोहित में सर्वश्रेष्ठ है, वह बृहस्पति भी मैं ही हूँ। इस त्रिलोकी के सेनापतियों में कृत्तिकान्त शंकर से उत्पन्न महाज्ञाता कार्तिक स्वामी भी मैं ही हूँ। समस्त सरोवरों में अपार जलराशि वाला जो समुद्र है, वह मैं हूँ और महर्षियों में महान् तपस्वी भृगु भी मैं ही हूँ। वैकुण्ठ-विलासी श्रीकृष्ण ने कहा कि सम्पूर्ण वाचाओं में जिस सत्य का व्यवहार है, वही एक सत्य अक्षर मैं ही हूँ। कर्मकाण्ड का परित्याग करके ओंकार इत्यादि के द्वारा जिस जप-यज्ञ की सांगता की जाती है वह जप-यज्ञ समस्त यज्ञों में मेरी प्रधान विभूति है। नाम के जप का अत्यन्त श्रेष्ठ है। इसके लिये स्नान इत्यादि नित्य कर्मों की भी आवश्यकता नहीं होती। नाम के घोष से धर्म-अधर्म दोनों ही पवित्र होते हैं। वेदार्थ से भी नाम ही परब्रह्म ठहरता है। लक्ष्मी पति ने कहा कि पर्वतों में पुण्यपुंज जो पर्वतराज हिमालय है, वह भी मैं ही हूँ।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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