ज्ञानेश्वरी पृ. 306

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-10
विभूति योग


एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वत: ।
सोऽवकिम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशय: ॥7॥

इस प्रकार, हे सुभद्रापति! ये भाव मानो मेरी विभूतियाँ ही हैं और इन्होंने समस्त विश्व व्याप्त कर रखा है। इसीलिये ब्रह्मा से लेकर पिपीलिका-पर्यन्त इस पूरी सृष्टि में मेरे अलावा अन्य कोई वस्तु नहीं है। जिस व्यक्ति को इस तथ्य का ज्ञान हो जाता है, उसमें ज्ञान की जागृति हो जाती है और तब उसे छोट-बड़े और भले-बुरे इत्यादि भेदभाव की कल्पनाओं के दुःस्वप्न नहीं आते। मैं जो कुछ हूँ, वही मेरी विभूति है और सब मनुष्य मेरी उसी विभूति से व्याप्त हैं। अत: आत्मयोग के अनुभव से इन सबको एक ही आत्मस्वरूप मानना सर्वथा समीचीन और परमावश्यक है। इस विषय में सन्देह करने के लिये रत्तीभर भी जगह नहीं है कि जो अपने मनोबल के सहयोग से इस आत्मयोग के द्वारा मेरे साथ मिलकर समरस हो जाता है, वह अत्यन्त शुद्ध हो जाता है। हे किरीटी! जो इस प्रकार अभेद-दृष्टि से मुझे भजता है, उसके भजन के देहली में पहुँच करके मेरा रहना नितान्त आवश्यक हो जाता है। इसीलिये मैंने जो अभेदात्मक भक्तियोग बतलाया है, उसमें किसी प्रकार की शंका नहीं हो सकती और उसमें दुर्बलता के लिये भी कोई जगह नहीं है। जिस समय यह भक्तियोग चलता रहे, यदि उसी समय देहावसान हो जाय तो भी कुछ हानि नहीं होती, बात छठे अध्याय में स्पष्ट रूप से बतलायी जा चुकी है। अब यदि तुम्हारे मन में यह जिज्ञासा उत्पन्न होती हो कि इस अभेद का स्वरूप क्या है, तो सुनो। मैं तुम्हें उसका स्वरूप भी साफ-साफ बतलाता हूँ।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (104-111)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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