श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-10
विभूति योग
सम्पूर्ण महर्षियों में गुणों और ज्ञान में सर्वश्रेष्ठ जो कश्यप इत्यादि सात ऋषि हैं और चतुर्दश मनुओं में जो स्वयम्भू इत्यादि चार प्रमुख मनु हैं, हे धनुर्धर, वही ग्यारह मेरे ये भाव हैं। वे सृष्टि के व्यापार के लिये मेरे मनसे उत्पन्न हुए हैं। जब तक लोकों की सृष्टि नहीं हुई थी और जब तक इन तीनों लोकों का विस्तार नहीं हुआ था, तब तक महाभूतों का समुदाय भी क्रिया शून्य ही था। पीछे इन ग्यारहों का अस्तित्व हुआ और इन्होंने समस्त भुवनों को उत्पन्न किया तथा उन भुवनों में भिन्न-भिन्न अष्टलोकपालाधिपति नियुक्त किये। इस प्रकार ये ग्यारहों राजा हैं और शेष समस्त संसार इनकी प्रजा है। कहने का आशय यह है कि तुम्हें इस बात को अच्छी तरह समझ लेना चाहिये कि यह सारा जगत् मेरा ही विस्तार है। देखो, आरम्भ में सिर्फ एक ही बीज का अस्तित्व रहता है। फिर उसी बीज के बढ़ने से जड़ निकलती है। तब उस जड़ में से अंकुर प्रस्फुटित होता है, तब उन्हीं अंकुरों से शाखाएँ और प्रशाखाएँ निकलती हैं और फिर समस्त शाखाओं में पत्ते निकलते हैं। उन्हीं पत्तों में फल और फूल आते हैं। इस प्रकार वृक्षत्व पूर्णता प्राप्त करता है। पर यदि इस वृक्षत्व को सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाय तो यही सिद्ध होता है कि वह सब केवल उसी के छोटे-से बीज का विस्तार है। इसी प्रकार मैं भी एक ही मूल तत्त्व हूँ। उस ‘मैं’ ने ही मन उत्पन्न किया है और इसी मन से सप्तर्षि तथा चारों मनु उत्पन्न हुए हैं। इन्हीं ग्यारहों ने लोकपालों को उत्पन्न किया है और इन लोकपालों ने विविध लोकों की रचना की और उन लोकों से सारी प्रजा ने जन्म धारण किया है। इस प्रकार सम्पूर्ण विश्व का मैंने ही विस्तार किया। पर ये सब बातें उसी की समझ में आती हैं, जिसके मन में इन भावों की उत्पत्ति के विषय में श्रद्धा होती है।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (92-103)
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