श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-10
विभूति योग
हे पाण्डव! इस समस्त जगत् का मूल मैं ही हूँ ओर मुझसे ही इन सबका जन्म और स्थिति-दोनों होते हैं। तरंगें जल में उत्पन्न होती हैं और उनका आश्रय तथा जीवन भी जल ही होता है। जैसे बिना जल के तरंगें हो ही नहीं सकतीं; वैसे ही इस विश्व में कोई ऐसी वस्तु नहीं हो सकती जो मेरे बिना हो और जिसमें मेरा निवास न हो। जिन लोगों को मेरे इस विश्वव्यापक स्वरूप का ज्ञान है, वे चाहे जिस स्थान पर रहकर मेरा भजन करें, पर वे वास्तव में उदित होने वाले प्रेमभाव से ही वह भजन करते हैं। ऐसे लोग देश-काल और वर्तमान इत्यादि सबको मुझसे अभिन्न मानते हैं और जैसे वायु गगनरूप होकर गगन में विचरण करती है, वैसे ही वे मुझ जगद्रूप को मन में रखकर अपने आत्मज्ञान से तीनों लोकों में सुखपूर्वक क्रीड़ा करते हैं। तुम यह बात निश्चितरूप से जान लो कि जीवमात्र में जो कुछ दृष्टिगोचर हो, उसी को भगवद्रूप मानना ही मेरा सच्चा भक्तियोग है।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (112-118)
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |