ज्ञानेश्वरी पृ. 307

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-10
विभूति योग


अहं सर्वस्य प्रभवो मत्त: सर्वं प्रवर्तते ।
इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विता: ॥8॥

हे पाण्डव! इस समस्त जगत् का मूल मैं ही हूँ ओर मुझसे ही इन सबका जन्म और स्थिति-दोनों होते हैं। तरंगें जल में उत्पन्न होती हैं और उनका आश्रय तथा जीवन भी जल ही होता है। जैसे बिना जल के तरंगें हो ही नहीं सकतीं; वैसे ही इस विश्व में कोई ऐसी वस्तु नहीं हो सकती जो मेरे बिना हो और जिसमें मेरा निवास न हो। जिन लोगों को मेरे इस विश्वव्यापक स्वरूप का ज्ञान है, वे चाहे जिस स्थान पर रहकर मेरा भजन करें, पर वे वास्तव में उदित होने वाले प्रेमभाव से ही वह भजन करते हैं। ऐसे लोग देश-काल और वर्तमान इत्यादि सबको मुझसे अभिन्न मानते हैं और जैसे वायु गगनरूप होकर गगन में विचरण करती है, वैसे ही वे मुझ जगद्रूप को मन में रखकर अपने आत्मज्ञान से तीनों लोकों में सुखपूर्वक क्रीड़ा करते हैं। तुम यह बात निश्चितरूप से जान लो कि जीवमात्र में जो कुछ दृष्टिगोचर हो, उसी को भगवद्रूप मानना ही मेरा सच्चा भक्तियोग है।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (112-118)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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